2002 दंगे: गुजरात हाईकोर्ट ने तीन ब्रिटिश नागरिकों की हत्या के आरोपी छह व्यक्तियों को बरी करने का आदेश बरकरार रखा

गुजरात हाईकोर्ट ने 2015 में सेशंस कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश बरकरार रखा, जिसमें 2002 में अदालत ने यह फैसला देते हुए कहा कि मामले में कोई पहचान परेड नहीं कराई गई थी और गवाही के दौरान पहली बार छह साल बाद आरोपियों की पहचान कराई गई।
कोर्ट ने कहा कि इस तरह की पहचान को दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता। साथ ही अदालत ने यह भी देखा कि इस मामले की जांच स्वतंत्र चश्मदीद गवाहों के बयान पर नहीं, बल्कि ब्रिटिश उच्चायोग को भेजे गए गुमनाम फैक्स संदेश के आधार पर शुरू की गई, जिसमें उत्तरदाताओं के नाम आरोपियों के रूप में बताए गए।
न्यायालय की टिप्पणियां
जस्टिस ए.वाई. कोगजे और जस्टिस समीर जे. दवे की खंडपीठ ने 6 मार्च को दिए गए अपने आदेश में विभिन्न गवाहों की गवाही की समीक्षा करने के बाद कहा,
"इस अदालत का मानना है कि जांच अधिकारी (I.O.) ने जांच के दौरान पहचान परेड (TIP) कराने की कोशिश की, लेकिन अपने बयान में बताए गए कारणों के चलते वह ऐसा करने में असमर्थ रहे। अदालत को इसमें किसी भी तरह की दुर्भावना नहीं दिखती। इसके बाद गवाह (PW-68) द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए दी गई पहचान को एक ठोस साक्ष्य नहीं माना जा सकता, जिस पर दोषसिद्धि आधारित हो या पहले के बरी किए गए आदेश को पलटा जा सके।"
पहचान साक्ष्य पर संदेह
सेशन कोर्ट ने शिकायतकर्ता के बयान, FIR और जांच अधिकारी के साक्ष्य पर पुनर्विचार करने के बाद यह पाया कि गवाहों ने आरोपियों का केवल कद, कपड़ों और उम्र का अनुमानित विवरण दिया था। यह विवरण FIR में भी दर्ज नहीं था।
कोर्ट ने कहा कि गवाह (PW-68) को उस क्षेत्र और वहां मौजूद भीड़ में शामिल लोगों के बारे में जानकारी नहीं थी। पहली बार पहचान छह साल बाद की गई। इसलिए यह पहचान दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं मानी जा सकती।
अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्ष
गवाह (PW-68) ने कहा कि भीड़ में 15-20 लोग थे, जबकि एक स्वतंत्र गवाह (PW-19) प्रवीन पटेल ने कहा कि भीड़ में 150-200 लोग थे। किसी आरोपी के लाई डिटेक्टर टेस्ट (Lie Detector Test) की मांग नहीं की गई, लेकिन फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) की रिपोर्ट के अनुसार कोई भी आरोपी संदिग्धों की सूची में नहीं आता।
आरोपियों के नाम एक गुमनाम फैक्स संदेश के जरिए सामने आए, जिसे ब्रिटिश उच्चायोग को भेजा गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
28 फरवरी, 2002 को शिकायतकर्ता इमरान मोहम्मद सलीम दाऊद अपने दो चाचाओं सईद सफीक दाऊद और सकील अब्दुल हई दाऊद तथा गांव के एक अन्य व्यक्ति मोहम्मद @ नल्लाभाई अब्दुलभाई अस्वर (सभी ब्रिटिश नागरिक) के साथ आगरा और जयपुर की यात्रा पूरी कर प्रांटिज से गुजर रहे थे। उनके साथ ड्राइवर यूसुफ भी था।
22 शिकायत के अनुसार शिकायतकर्ता के चाचा पास के खेतों की ओर भागे लेकिन भीड़ ने उनका पीछा किया। इस बीच पुलिस पेट्रोलिंग वैन मौके पर पहुंची और घायल इमरान और मोहम्मद अस्वर को अस्पताल ले जाया गया, जहां मोहम्मद अस्वर को मृत घोषित कर दिया गया।
बाद में ब्रिटिश उच्चायोग के अधिकारियों और पुलिस ने घटनास्थल से हड्डियों के छोटे टुकड़े बरामद किए। ये टुकड़े फॉरेंसिक जांच के लिए भेजे गए और पीड़ितों के परिजनों के बल्ड सैंपल भी लिए गए।
जांच और अदालत का फैसला
24 मार्च, 2002 को ब्रिटिश उच्चायोग को गुमनाम फैक्स मैसेज मिला, जिसमें आरोपी प्रवीणभाई जिवाभाई पटेल का नाम था और दावा किया गया कि उसने 222 गुजरात सरकार ने SIT का गठन किया।
2009 में सेशंस कोर्ट ने छह आरोपियों पर हत्या (धारा 302), दंगा (धारा 148) और साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने (धारा 153A) सहित भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं के तहत आरोप तय किए।
कोर्ट का अंतिम निर्णय
गुजरात हाईकोर्ट ने पाया,
मामले में स्वतंत्र चश्मदीद गवाहों का अभाव है। पहचान परेड नहीं कराई गई। गवाहों द्वारा दी गई पहचान छह साल बाद की गई, जिसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। मामले की जांच गुमनाम फैक्स संदेश पर आधारित थी, जो कानूनी रूप से मजबूत साक्ष्य नहीं हो सकता।
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गुजरात हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के 2015 के बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और अभियुक्तों को निर्दोष ठहराया।
केस टाइटल: इमरान दाऊद बनाम पटेल मिताभाई पाशाभाई और अन्य