परिवार के मुखियाओं द्वारा निष्पादित सहमति निर्णय से गैर-हस्ताक्षरकर्ता परिवार के सदस्य भी बाध्य: गुजरात हाईकोर्ट
गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि एक बार जब दो परिवारों के मुखिया संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था और सहमति मध्यस्थता निर्णय के माध्यम से सौहार्दपूर्ण ढंग से विवादों का समाधान कर लेते हैं तो परिवार के व्यक्तिगत सदस्य बाद में निर्णय की हस्ताक्षरित प्रति न मिलने या व्यक्तिगत सहमति के अभाव के आधार पर निर्णय को चुनौती नहीं दे सकते, भले ही वे हस्ताक्षरकर्ता न हों।
चीफ जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस डी.एन. रे की खंडपीठ ने कहा कि यदि पारिवारिक व्यवस्थाएं सद्भावपूर्वक और स्वेच्छा से निष्पादित की जाती हैं तो वे कार्यवाही में प्रतिनिधित्व करने वाले सभी सदस्यों पर बाध्यकारी होती हैं। साथ ही मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (मध्यस्थता अधिनियम) की धारा 34(3) के तहत वैधानिक अवधि से अधिक विलंब को क्षमा नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा,
"इस आधार पर सहमति निर्णय को चुनौती देना कि सहमति की शर्तों पर अपीलकर्ताओं द्वारा हस्ताक्षर नहीं किए गए, उचित नहीं ठहराया जा सकता। पारिवारिक समझौता और सहमति निर्णय सभी पक्षों पर बाध्यकारी हैं।"
मामले की पृष्ठभूमि
यह निर्णय दो भाइयों के बीच हुए सहमति समझौते पर आधारित था, जिन्हें अपने पिता से संपत्तियाँ और व्यवसाय विरासत में मिले थे। दोनों पक्षों ने एक समझौता ज्ञापन (एमओए)/पारिवारिक व्यवस्था पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह दर्ज किया गया कि वे "संयुक्त व्यवसायों और संपत्तियों को इस प्रकार विभाजित करना चाहते हैं कि प्रत्येक पक्ष को दूसरे पक्ष के किसी सह-हित या हिस्से के बिना विशिष्ट व्यवसाय और संपत्ति का अनन्य स्वामित्व और नियंत्रण प्राप्त हो।"
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि चूंकि वे सहमति की शर्तों के पक्षकार नहीं है, इसलिए सहमति निर्णय रद्द कर दिया जाना चाहिए। यह भी तर्क दिया गया कि चूंकि उन्हें निर्णय की हस्ताक्षरित प्रति प्राप्त नहीं हुई, इसलिए मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34(3) और धारा 31(5) के तहत परिसीमा अवधि शुरू नहीं हुई थी। अंत में यह तर्क दिया गया कि पारिवारिक समझौता और निर्णय दबाव और गलत बयानी के तहत निष्पादित किए गए।
इसके विपरीत, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व उनके पिता द्वारा किया गया, जिनके पास वैध मुख्तारनामा है और वे मध्यस्थता सहित सभी कानूनी कार्यवाहियों में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिकृत हैं।
कोर्ट का निष्कर्ष
अदालत ने अपीलकर्ताओं के गैर-प्रतिनिधित्व संबंधी तर्कों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनका प्रभावी प्रतिनिधित्व उनके परिवार के मुखिया चंद्रजीतभाई ने किया, जिन्होंने समझौता समझौते पर हस्ताक्षर किए और बाद में सभी परिवार के सदस्यों की ओर से सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए।
अदालत ने कहा,
"यह तथ्य कि 19.05.2016 की सहमति शर्तों पर अपीलकर्ता, तिथि सी. शाह द्वारा हस्ताक्षर नहीं किए गए, वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं होगा... चंद्रजीतभाई के परिवार के सदस्यों का मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष उनके, समूह के मुखिया के माध्यम से विधिवत प्रतिनिधित्व किया गया।"
परिसीमा अवधि के संबंध में अदालत ने माना कि परिवार के मुखिया को निर्णय की हस्ताक्षरित प्रति प्रदान करना मध्यस्थता अधिनियम की धारा 31(5) का पर्याप्त अनुपालन था। इसलिए परिसीमा अवधि उसी तिथि से शुरू हुई।
इसने कहा,
"धारा 31(5) के अंतर्गत 'प्रत्येक पक्ष' शब्दों को संदर्भ के अनुसार समझा जाना चाहिए। यहां, 'प्रत्येक पक्ष' का अर्थ दोनों पारिवारिक समूहों के प्रतिनिधियों से है। धारा 34 के अंतर्गत आवेदन दायर करने की समय-सीमा, चंद्रजीतभाई, जो अपने समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनको पंचाट की हस्ताक्षरित प्रति प्राप्त होने की तिथि से मानी जाएगी।"
अदालत ने अपीलकर्ताओं की यह दलील कि उन्हें पंचाट के बारे में 2020 में ही पता चला, झूठी पाई क्योंकि उनके पिता को पंचाट के संबंध में कार्य करने का अधिकार देने वाली मुख्तारनामा 2016 में ही निष्पादित हो चुकी है।
काले बनाम चकबंदी निदेशक के मामले में अदालत ने माना कि सद्भाव बनाए रखने के लिए निष्पादित पारिवारिक व्यवस्थाएं विशेष समता द्वारा शासित होती हैं और उन्हें तब भी बरकरार रखा जाना चाहिए, भले ही उन पर प्रत्येक सदस्य द्वारा व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर न किए गए हों। काले मामले में अदालत ने कहा कि "पारिवारिक व्यवस्थाएं अपने आप में एक विशेष समता द्वारा शासित होती हैं। यदि ईमानदारी से की जाएँ तो उन्हें लागू किया जाएगा... अदालतें हमेशा तकनीकी या तुच्छ आधारों पर पारिवारिक व्यवस्थाओं में खलल डालने के बजाय उन्हें बरकरार रखने के पक्ष में रही हैं।"
हेतलबेन की इस दलील पर कि उन्होंने दबाव और भावनात्मक ब्लैकमेल के तहत समझौता ज्ञापन (MOA) पर हस्ताक्षर किए, अदालत ने उनके बयानों को विरोधाभासी पाया, क्योंकि उन्होंने अपनी दलीलों में कहा कि दोनों समूहों के प्रमुखों ने न्यायाधिकरण के समक्ष काफी विचार-विमर्श और चर्चा के बाद समझौता समझौते पर हस्ताक्षर किए।
अदालत ने कहा,
"एक बार यह स्वीकार कर लिया गया तो इस आधार पर मध्यस्थता अवार्ड को चुनौती देना कि अपीलकर्ता समझौता समझौते का पक्षकार नहीं था, पूरी तरह से अस्वीकार्य है।"
अदालत ने निष्कर्ष निकाला,
"इस आधार पर सहमति अवार्ड को चुनौती देना कि सहमति की शर्तों पर अपीलकर्ताओं ने हस्ताक्षर नहीं किए, कायम नहीं रह सकता। पारिवारिक समझौता और सहमति अवार्ड सभी पक्षकारों पर बाध्यकारी हैं। साथ ही अधिनियम की धारा 34 के तहत आवेदन पूरी तरह से समय सीमा द्वारा वर्जित है।"
तदनुसार, वर्तमान अपीलें खारिज कर दी गईं।
Case Title: TITHI CHANDRAJIT SHAH Versus RAJENDRABHAI ALIAS SAMIRBHAI NATVARLAL SHAH & ORS