दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से BNS से LGBTQ व्यक्तियों के विरुद्ध यौन अपराधों को बाहर करने को चुनौती देने वाली याचिका पर निर्णय लेने को कहा
दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह भारतीय न्याय संहिता (BNS) से अब निरस्त भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 377 के समान प्रावधान को बाहर करने के खिलाफ दायर याचिका को प्रतिनिधित्व के रूप में माने।
एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस तुषार राव गेडेला ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रतिनिधित्व पर शीघ्रता से अधिमानतः छह महीने के भीतर निर्णय ले।
याचिका का निपटारा करते हुए न्यायालय ने कहा कि अभ्यावेदन पर विचार करने में देरी होने की स्थिति में याचिकाकर्ता गंटाव्य गुलाटी याचिका को पुनर्जीवित करने की मांग करने के लिए स्वतंत्र होंगे।
याचिकाकर्ता जब ने प्रार्थना की कि याचिका पर समयबद्ध तरीके से निर्णय लिया जाए तो केंद्र सरकार के वकील अनुराग अहलूवाली ने न्यायालय को सूचित किया कि कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सांसदों सहित विभिन्न हितधारकों से परामर्श करना शामिल होगा।
उन्होंने कहा कि प्रावधान को BNS में नए रूप में पेश करना होगा। सभी पक्षों की सहमति से ऐसा करना होगा। अहलूवालिया ने कहा कि यह मुद्दा न केवल राज्य से संबंधित है बल्कि आम जनता के खिलाफ भी है।
सुनवाई के दौरान एसीजे मनमोहन ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि इस बीच सरकार इस मुद्दे पर अपना विचार लगाती है यदि आवश्यक हो तो अध्यादेश लाया जा सकता है। यह तब हुआ जब अहलूवालिया ने संकेत दिया कि प्रक्रिया लंबी है। इस पर विचार-विमर्श करने में कुछ समय लग सकता है।
एसीजे ने कहा,
"आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश लाया जा सकता है। इस बीच आप अपना दिमाग लगाइए।"
साथ ही उन्होंने कहा कि अदालत केवल सोच रही है।
जस्टिस गेडेला ने टिप्पणी की कि मान लीजिए कि कोई घटना अदालत के बाहर होती है तो क्या अदालत सिर्फ इसलिए अपनी आंखें बंद कर लेगी, क्योंकि अपराध कानून की किताब में नहीं है।
याचिका में गैर-सहमति वाले यौन कृत्यों के खिलाफ आईपीसी की धारा 377 के तहत दिए गए समान कानूनी संरक्षण की बहाली की मांग की गई। याचिका में कहा गया कि यह व्यक्तियों, विशेष रूप से LGBTQIA+ समुदाय से संबंधित लोगों की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए है।
IPC की धारा 377 किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति के आदेश के खिलाफ गैर-सहमति वाले शारीरिक संभोग को अपराध मानती है, यानी अप्राकृतिक अपराध'। इस प्रावधान को BNS में पूरी तरह से बदल दिया गया, जो 01 जुलाई से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) के साथ लागू हुआ।
पिछले साल दिसंबर में गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने BNS में IPC की धारा 377 को शामिल करने की मांग की। अपनी सिफारिशों में समिति ने कहा था कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित प्रावधान खारिज कर दिया हो लेकिन IPC की धारा 377 वयस्कों के साथ गैर-सहमति वाले शारीरिक संबंध, नाबालिगों के साथ शारीरिक संबंध के सभी कृत्यों और पशुता के कृत्यों के मामलों में लागू रहेगी।
हालांकि इसने यह भी कहा कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 में पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर के खिलाफ गैर-सहमति वाले यौन अपराध और पशुता के लिए कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए इसने सुझाव दिया कि "BNS में बताए गए उद्देश्यों के साथ संरेखित करने के लिए, जो जेंडर-तटस्थ अपराधों की ओर कदम को उजागर करता है, आईपीसी की धारा 377 को फिर से पेश करना और बनाए रखना अनिवार्य है।”
केस टाइटल- गंतव्या गुलाटी बनाम भारत संघ