आपराधिक शिकायत शुरू करने के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का एआर अंतुले का फैसला रिट याचिकाओं पर लागू नहीं होता: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में रियल एस्टेट कंपनी मेसर्स आईआरईओ रेजिडेंसेज के खिलाफ अदालत की निगरानी में प्रवर्तन निदेशालय (ED) से जांच कराने की मांग वाली कई रिट याचिकाओं को जुर्माने के साथ खारिज कर दिया, जिसमें कथित तौर पर घर खरीदारों को धोखा देने और ₹4,000 करोड़ से अधिक की धनराशि की हेराफेरी करने का आरोप लगाया गया था।
जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा ने कहा कि याचिकाकर्ता न तो घर खरीदार था और न ही कंपनी के कथित कृत्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित था।
उन्होंने कहा,
“याचिकाकर्ता पीड़ित व्यक्ति की श्रेणी में नहीं आता है, जिससे वह संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत इस न्यायालय के असाधारण रिट क्षेत्राधिकार का आह्वान करने का हकदार हो।”
उल्लेखनीय है कि याचिकाकर्ता ने एआर अंतुले बनाम आरएस नायक (1984) मामले का हवाला दिया था, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति आपराधिक कानून को लागू कर सकता है। प्रत्यक्ष अधिकार क्षेत्र का अभाव वित्तीय अपराधों से संबंधित वैध शिकायतों को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता।
हालांकि, हाईकोर्ट ने कहा कि उक्त निर्णय आपराधिक शिकायतों के संदर्भ में दिया गया था और इसे रिट क्षेत्राधिकार पर लागू नहीं किया जा सकता।
हाईकोर्ट ने कहा,
“न्यायालय की निगरानी में जांच के लिए इन रिट याचिकाओं को बनाए रखने के लिए याचिकाकर्ता द्वारा एआर अंतुले (सुप्रा) मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा करना, इस न्यायालय की सुविचारित राय में, गलत है। यद्यपि यह आपराधिक न्यायशास्त्र का सुस्थापित सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति आपराधिक कानून को लागू कर सकता है, सिवाय इसके कि जहां कोई वैधानिक प्रावधान किसी अपराध को लागू या सृजित करता है, फिर भी उक्त निर्णय में विधि का उक्त सिद्धांत सक्षम प्राधिकारी के समक्ष शिकायत दर्ज करने और उसे बनाए रखने के संदर्भ में निर्धारित किया गया था, न कि रिट याचिका के संदर्भ में।”
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि प्रवर्तन निदेशालय ने 4,246 करोड़ रुपये की संपत्ति को अपराध की आय के रूप में चिन्हित किया, लेकिन उसने केवल 1,317 करोड़ रुपये की संपत्तियां ही ज़ब्त की हैं और जानबूझकर दिल्ली में 149 एकड़ बेशकीमती ज़मीन, गुड़गांव की संपत्तियां और विदेशी निवेश जैसी उच्च-मूल्य वाली संपत्तियों को ज़ब्त नहीं किया है, जिससे जांच में पक्षपात और मिलीभगत का पता चलता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि जनहित याचिका केवल उसी आधार पर दायर की जा सकती है, जिस पर कोई पक्ष, जो पीड़ित व्यक्ति नहीं है, रिट याचिका दायर कर सकता है।
न्यायालय ने कहा,
“हालांकि, इस स्वीकृत तथ्य को देखते हुए कि याचिकाएं दिल्ली हाईकोर्ट (जनहित याचिका) नियम, 2010 के प्रावधानों के अनुसार दायर नहीं की गईं, उपर्युक्त रिट याचिकाएं जनहित याचिकाएं नहीं हैं। इसलिए याचिकाकर्ता के पास वर्तमान रिट याचिकाओं को बनाए रखने के लिए आवश्यक अधिकार नहीं है।”
इसने जसभाई मोतीभाई देसाई बनाम रोशन कुमार, हाजी बशीर अहमद (1976) मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने वाले व्यक्ति के पास सामान्यतः विषय-वस्तु में व्यक्तिगत या वैयक्तिक अधिकार होना चाहिए।
कोर्ट ने आगे कहा,
“इस प्रकार, याचिकाकर्ता द्वारा आपराधिक शिकायत में सक्षम प्राधिकारी से संपर्क करने के अधिकार के संबंध में सामान्य प्रस्ताव, यद्यपि सही ढंग से कहा गया, याचिकाकर्ता को वर्तमान रिट याचिका को बनाए रखने में सहायता नहीं करता है, जिसमें न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग की गई।
न्यायालय ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा,
वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए याचिकाकर्ता प्रथम दृष्टया आपराधिक शिकायत दर्ज करने या आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की मांग नहीं कर रहा है। बल्कि, प्रार्थना न्यायालय की निगरानी में जांच की है, जो गुणात्मक रूप से एक अलग उपाय है और कानून में विभिन्न विचारों द्वारा शासित है।”
न्यायालय ने इस मुद्दे पर कई याचिकाएं दायर करने की बात छिपाने के लिए पेशे से वकील याचिकाकर्ता पर ₹25,000 का जुर्माना भी लगाया।
Case title: Gulshan Babbar Advocate v. GNCTD (and batch)