दिल्ली हाईकोर्ट ने स्कूल को माइल्ड ऑटिज्म पीड़ित बच्ची को एडमिशन देने का निर्देश दिया; कहा- समावेशी शिक्षा केवल स्कूल तक पहुंच ही नहीं, बल्कि स्कूल का अपनापन भी है
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में स्कूल में एडमिशन से वंचित "माइल्ट ऑटिज्म" पीड़ित एक बच्चे को राहत प्रदान की और समावेशी शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया। कोर्ट ने कहा कि "समावेशी शिक्षा" का संबंध केवल शिक्षा तक पहुंच से ही नहीं है, बल्कि यह अपनेपन के बारे में है।
जस्टिस विकास महाजन ने कहा,
"यह इस बात को पहचानने के बारे में भी है कि कक्षा में हर बच्चे का स्थान है, इसलिए नहीं कि वे एक जैसे हैं, बल्कि इसलिए कि वे अलग हैं, और यह अंतर सभी के लिए सीखने के माहौल को समृद्ध करता है।"
न्यायालय ने कहा कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत वैधानिक दायित्व, लागू करने योग्य कर्तव्य हैं, जिनका उद्देश्य जीवन के सभी क्षेत्रों, विशेष रूप से शिक्षा में विकलांग बच्चों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करना है।
जस्टिस महाजन एक नाबालिग बच्चे द्वारा अपनी मां के माध्यम से दायर याचिका पर विचार कर रहे थे, जिसमें विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 31 के अनुसार जीडी गोयनका पब्लिक स्कूल में कक्षा 1 या आयु के अनुसार किसी भी कक्षा में पुनः प्रवेश की मांग की गई थी।
मां के माध्यम से दायर याचिका में बताया गया था कि उनकी बेटी 2017 में एक सामान्य बच्चे के रूप में पैदा हुई थी, हालांकि समय बीतने के साथ उन्हें अनुभव हुआ बेटी बैठने, चलने और बोलने संबंधी विकास के पहलुओं को हासिल करने में विलंब कर रही है।
उसे शैक्षणिक सत्र 2021-22 में भाई-बहन के नियम के तहत स्कूल में भर्ती कराया गया था। बाद में, 2021 में बच्ची में माइल्ड ऑटिज्म का पता चला। 2022 में स्कूल के प्रिंसिपल ने नाबालिग के साथ कुछ व्यवहार संबंधी मुद्दों को चिह्नित किया। 2023 में उसकी पढ़ाई रोक दी गई।
स्कूल की ओर से बताया गया कि नाबालिग रिट याचिका में मांगी गई राहत का हकदार नहीं है क्योंकि कक्षा-1 में कोई रिक्ति नहीं है। यह तर्क दिया गया कि नाबालिग ने जनवरी 2023 से स्कूल जाना बंद कर दिया और फीस का भुगतान न करने सहित 20 महीने से अधिक समय तक कम्यूनिकेशन की पूरी कमी रही।
नाबालिग को राहत देते हुए, न्यायालय ने कहा कि बच्चे ने जनवरी 2023 से स्कूल जाना बंद कर दिया था, लेकिन ऐसा वापस लेने की इच्छा के कारण नहीं था, बल्कि स्कूल की उसकी बढ़ती जरूरतों को सार्थक रूप से समायोजित करने की अनिच्छा के कारण था।
कोर्ट ने आगे कहा कि स्कूल को तकनीकी मुद्दे उठाकर बच्चे के समावेशी शिक्षा के अधिकार को विफल करने अनुमति नहीं दी जा सकती।
कोर्ट ने कहा,
“कानून का कोई भी प्रावधान नहीं बताया गया है, और ऐसा कोई भी प्रावधान मौजूद नहीं है जो यह बताता हो कि कक्षा की संख्या या आकार, अतिरिक्त छात्र को प्रवेश न देने के मामले में कठोर और अनम्य है। साथ ही, अधिनियम के तहत समावेशी शिक्षा का अधिकार प्रतीकात्मक नहीं बल्कि लागू करने योग्य अधिकार है, और किसी भी बच्चे को केवल संस्थागत अनिच्छा के कारण वंचित नहीं किया जा सकता है।"
निर्णय में यह भी कहा गया कि बच्चा ऐसी क्षमताओं वाला बच्चा है जो सही वातावरण में विकसित हो सकता है और उसे स्कूल समुदाय में एकीकृत किया जाना चाहिए।
जस्टिस महाजन ने यह भी देखा कि स्कूल की कार्रवाइयों से एक संस्थागत दृष्टिकोण का पता चलता है जो विकलांग व्यक्ति के रूप में नाबालिग बच्चे की जरूरतों के अनुरूप विकसित होने में विफल रहा।
न्यायालय ने स्कूल को नाबालिग लड़की को कक्षा एक या आयु-उपयुक्त कक्षा में फीस देने वाली छात्रा के रूप में फिर से प्रवेश देने का निर्देश दिया। उन्होंने आगे आदेश दिया कि नाबालिग को स्कूल के शिष्टाचार और सुरक्षा के बुनियादी मानदंडों के अधीन माता-पिता द्वारा नियुक्त छाया शिक्षक की सहायता से स्कूल में भाग लेने की अनुमति दी जाएगी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने स्कूल को माइल्ड ऑटिज्म पीड़ित बच्ची को एडमिशन देने का निर्देश दिया; कहा- समावेशी शिक्षा केवल स्कूल तक पहुंच ही नहीं, बल्कि स्कूल का अपनापन भी है
"डीओई याचिकाकर्ता के पुनः एकीकरण की निगरानी करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि स्कूल अधिनियम की धारा 3 और 16 के अनुसार समावेशी और गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण प्रदान करता है।"