DNA रिपोर्ट केवल पितृत्व साबित करती है, बलात्कार के मामले में सहमति की अनुपस्थिति स्थापित नहीं कर सकती: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि DNA रिपोर्ट केवल पितृत्व साबित करती है और बलात्कार के मामले में महिला की सहमति की अनुपस्थिति स्थापित नहीं कर सकती।
बलात्कार के मामले में व्यक्ति को बरी करते हुए जस्टिस अमित महाजन ने कहा,
“DNA रिपोर्ट केवल पितृत्व साबित करती है, यह अपने आप में सहमति की अनुपस्थिति स्थापित नहीं करती और न ही कर सकती है। यह सामान्य कानून है कि आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध सहमति की अनुपस्थिति पर टिका है। यौन संबंधों का केवल सबूत भले ही गर्भावस्था का परिणाम हो, बलात्कार को साबित करने के लिए अपर्याप्त है, जब तक कि यह भी नहीं दिखाया जाता कि यह कृत्य सहमति के बिना किया गया।”
यह तब हुआ, जब अभियोजन पक्ष ने DNA रिपोर्ट पर भरोसा किया, जिसने स्थापित किया कि अभियोक्ता से पैदा हुए बच्चे का बायोलॉजिकल पिता वह व्यक्ति था।
न्यायालय एक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376(2)(एन) और 506 के तहत बलात्कार के मामले में उसे दोषी ठहराए जाने के निचली अदालत के आदेश को चुनौती दी गई। अपनी सजा को चुनौती देने के अलावा, उसने दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनाए जाने के आदेश को भी चुनौती दी थी।
पीड़िता ने आरोप लगाया कि आरोपी उसे बोर्ड गेम लूडो खेलने के बहाने अपने घर बुलाता था और उसके साथ बार-बार यौन उत्पीड़न करता था। बाद में पता चला कि वह गर्भवती है।
आरोपों का विरोध करते हुए व्यक्ति ने कहा कि उसे गलत इरादे से मामले में फंसाया गया और पीड़िता ने उससे पैसे ऐंठने के लिए मामला दर्ज कराया। उसने कहा कि उसके और पीड़िता के बीच संबंध सहमति से बने थे।
आरोपी को बरी करते हुए न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष देरी के लिए कोई उचित स्पष्टीकरण देने में विफल रहा और न ही बल या प्रतिरोध को इंगित करने वाला कोई मेडिकल साक्ष्य है।
न्यायालय ने कहा कि अभियोक्ता ने स्वयं स्वीकार किया कि वह लंबे समय तक लूडो खेलने के लिए उसके घर जाती रही, उसके प्रति स्नेह की भावना विकसित की तथा कथित घटनाओं के घटित होने के बाद भी अपने परिवार को इस बारे में कुछ नहीं बताया।
जस्टिस बंसल ने कहा कि गर्भवती होने का पता चलने के बाद ही आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करने के पीड़िता के आचरण से यह मजबूत निष्कर्ष निकलता है कि FIR बलात्कार की सहज या वास्तविक शिकायत का परिणाम नहीं था बल्कि विवाहेतर गर्भावस्था के कथित सामाजिक कलंक की प्रतिक्रिया थी।
न्यायालय ने कहा,
"यह अनुमान तब और मजबूत हो जाता है, जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि पीड़िता ने अपीलकर्ता के प्रति स्नेह की भावना विकसित की, जैसा कि उसने क्रॉस एक्जामिनेशन में स्वीकार किया। साथ ही वह महीनों तक स्वेच्छा से उसके घर जाती रही। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पीड़िता और उसके परिवार को सामाजिक प्रतिक्रिया से बचाने के लिए सहमति से बने संबंध को बलात्कार के रूप में पूर्वव्यापी रूप से पुनः परिभाषित करने के लिए आरोप लगाए गए।"
इसमें कहा गया कि कथित कृत्यों की रिपोर्ट करने के कई अवसर होने के बावजूद, पीड़िता चुप रही और उसने गर्भावस्था का पता चलने के बाद ही शिकायत दर्ज कराई।
अदालत ने कहा,
"कुल मिलाकर देखा जाए तो ये तथ्य इस संभावना को बल देते हैं कि FIR सामाजिक दबाव की प्रतिक्रिया थी और अवांछित गर्भावस्था को समझाने के लिए रिश्ते की प्रकृति को पूर्वव्यापी रूप से फिर से तैयार किया गया।"
जस्टिस महाजन ने निष्कर्ष निकाला कि पीड़िता ने पहले के चरणों में केवल यह कहा कि आरोपी ने उसे किसी को न बताने के लिए कहा और यह केवल ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपने बयान के दौरान था - काफी समय बीतने के बाद कि उसने कहा कि आरोपी ने उसके परिवार को जान से मारने की धमकी दी।
इसमें कहा गया,
“इस विलम्बित दावे के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। यह अलंकरण दावे की सत्यता पर गंभीर संदेह पैदा करता है। खासकर जब अपीलकर्ता के घर पर लगातार जाने और डर या परेशानी के कोई स्पष्ट संकेत न दिखाने के उसके अन्यथा लगातार आचरण के साथ संयोजन में देखा जाता है।”
केस टाइटल: नाथु बनाम राज्य