पार्टनरशिप एक्ट की धारा 69 के तहत लगाया गया प्रतिबंध आर्बिट्रेशन कार्यवाही पर लागू नहीं होता: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2024-11-02 09:23 GMT

जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ ने माना कि पार्टनरशिप एक्ट (Partnership Act) की धारा 69 का प्रतिबंध धारा 69(3) में प्रयुक्त “अन्य कार्यवाही” के अंतर्गत नहीं आता। इसलिए धारा 69 के तहत लगाया गया प्रतिबंध आर्बिट्रेशन कार्यवाही पर लागू नहीं होता।

संक्षिप्त तथ्य

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत याचिका दावेदार, भागीदार की ओर से दिनांक 28.04.2017 के अवार्ड और दिनांक 01.07.2017 के संशोधित अवार्ड को चुनौती देने की मांग करते हुए दायर की गई है, जिसके अनुसार विद्वान मध्यस्थ ने उनकी भागीदारी फर्म मेसर्स आशिका टेक्सटाइल्स और क्लासिक प्रोसेसर्स से संबंधित आर्बिट्रेशन कार्यवाही में दावेदार के दावों का फैसला किया।

दावेदार/याचिकाकर्ता हरिओम शर्मा और सौमन कुमार चटर्जी तथा एस.के. मल्होत्रा, क्रमशः प्रतिवादी नंबर 1 और 2, ने 12.05.1995 को साहिबाबाद, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में पार्टनरशिप डीड निष्पादित करके मेसर्स आशिका टेक्सटाइल्स नामक साझेदारी फर्म का गठन किया, जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। इसके बाद उन्होंने दो और साझेदारी फर्म खोलीं।

क्लासिक प्रोसेसर्स नामक तीसरी साझेदारी फर्म का गठन 19.12.2000 को साहिबाबाद, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में किया गया, जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। पार्टनरशिप फर्म के तहत जून, 2001 में जॉब वर्क शुरू किया गया। आखिरकार, दोनों फर्मों ने 31.07.2003 को अपना कारोबार बंद कर दिया। इसके बाद भागीदारों के बीच विवाद पैदा हो गए। याचिकाकर्ता ने 27.10.2004 को एक कानूनी नोटिस दिया।

01.08.2005 तक उसके संज्ञान में आए अन्य तथ्यों के आधार पर दावेदार ने 01.08.2005 को दूसरा कानूनी नोटिस भेजा तथा अपने दावे भी प्रस्तुत किए। प्रतिवादियों से 16.08.2005 को उत्तर प्राप्त होने पर याचिकाकर्ता ने आर्बिट्रेशन के माध्यम से अपने विवादों के निवारण की मांग करते हुए 29.08.2005 को तीसरा कानूनी नोटिस जारी किया।

प्रतिवादियों ने केवल आशिका टेक्सटाइल्स के मामले में अपनी सहमति दी तथा क्लासिक प्रोसेसर्स के मामले में पार्टनरशिप डीड में आर्बिट्रेशन क्लॉज न होने के झूठे दावे के आधार पर इनकार किया।

इसके बाद याचिकाकर्ता ने क्लासिक प्रोसेसर्स के पार्टनरशिप डीड की कॉपी भेजी, जिसमें वर्ष 2006 में मध्यस्थता खंड शामिल था, लेकिन प्रतिवादियों से कोई और प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई।

चूंकि प्रतिवादियों ने मेसर्स आशिका टेक्सटाइल्स के संबंधित मामले में पहले ही सहमति दी थी, इसलिए इस फर्म के लिए भी मध्यस्थ नियुक्त किया गया। पक्षों के अनुरोध पर मध्यस्थ द्वारा इन दोनों मामलों को एक साथ जोड़ दिया गया।

इस प्रकार मध्यस्थ ने माना कि दोनों अपंजीकृत भागीदारी फर्मों को 31.07.2003 को भंग नहीं किया गया, यद्यपि उक्त तिथि को दोनों पार्टनरशिप फर्मों का व्यवसाय बंद हो चुका था। दोनों फर्मों को अवार्ड की तिथि से भंग कर दिया गया।

तर्क

याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि मध्यस्थ ने न केवल अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया, बल्कि पार्टनरशिप डीड के अनुसार दावों का निर्णय न करके स्वयं का गलत आचरण किया।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि पार्टनरशिप डीड या कानून के किसी भी प्रावधान का पालन किए बिना प्रतिवादियों ने उसी दिन व्यवसायिक परिसर को मकान मालिक को सौंप दिया। प्रतिवादियों द्वारा याचिकाकर्ता को कोई लिखित नोटिस नहीं दिया गया, जैसा कि फर्मों के विघटन के लिए आवश्यक था, क्योंकि दोनों फर्में स्वेच्छा से भागीदारी थीं।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि पार्टनरशिप फर्म को 01.08.2003 से अवैध रूप से बंद कर दिया गया। व्यावसायिक परिसर का खाली कब्जा साझेदारी व्यवसाय के अंतिम कार्य दिवस यानी 31.07.2003 को मकान मालिक को सौंप दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप अपीलकर्ता को नुकसान हुआ है। मध्यस्थ रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य की सराहना करने में विफल रहे हैं। उन्होंने गलत और मनमाने ढंग से निर्णय लिया कि कार्रवाई का कारण 31.07.2003 को उत्पन्न हुआ था।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि ब्याज की अनुमति देने वाले मध्यस्थ का निर्णय समझौते की शर्तों और लागू कानून के विरुद्ध है। याचिकाकर्ता वास्तव में पूंजी पर 18% प्रति वर्ष की दर से चक्रवृद्धि ब्याज का हकदार है, न कि 12%।

इसके विपरीत, प्रतिवादियों ने प्रस्तुत किया कि पार्टनरशिप एक्ट की धारा 69 के साथ-साथ परिसीमा एक्ट के तहत सभी दावे वर्जित थे। धारा 69 एक अनिवार्य प्रावधान है। इसमें निहित प्रतिबंध को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस संबंध में कृष्णा मोटर सर्विस बनाम एचबी विट्ठल कामथ (1996) और जगदीश चंद्र गुप्ता बनाम कजारिया ट्रेडर्स (इंडिया) लिमिटेड (1964) पर भरोसा किया गया।

आगे यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ता पार्टनरशिप फर्म के विघटन और विघटन के बाद प्राप्त धन के संबंध में लिखित दस्तावेजों की अनुपस्थिति का लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है। बैजनाथ बनाम छोटेलाल, (1958) पर भरोसा किया गया, जिसमें अदालत ने माना कि "अन्य परिस्थितियों के साथ-साथ व्यवसाय की समाप्ति वैध रूप से इस निष्कर्ष पर ले जा सकती है कि पार्टनरशिप भंग हो गई।

अदालत का विश्लेषण

अदालत ने शुरू में मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत हस्तक्षेप के दायरे पर चर्चा की और एमएमटीसी लिमिटेड बनाम वेदांता लिमिटेड, (2019) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। यह माना गया कि अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत आर्बिट्रल अवार्ड में हस्तक्षेप धारा 34 द्वारा स्थापित सीमाओं से परे नहीं जा सकता।

अदालत ने आगे बढ़कर फर्मों के विघटन के संबंध में विवाद का विश्लेषण किया। सबसे पहले, न्यायालय ने मध्यस्थ द्वारा मेसर्स वी.एच. पटेल एवं कंपनी एवं अन्य बनाम हिरूभाई हिमाभाई पटेल एवं अन्य (2000) में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा करने से सहमति जताई, जिसमें यह माना गया कि यदि समझौते का उल्लंघन होता है। आचरण आपसी विश्वास को नष्ट करने वाला होता है तो निश्चित रूप से ऐसा आचरण साझेदारी के विघटन का आधार बनता है।

उपर्युक्त के आधार पर न्यायालय ने पाया कि जैसा कि मध्यस्थ ने सही माना, समापन की तिथि को पार्टनरशिप के विघटन की तिथि नहीं माना जा सकता, क्योंकि पार्टनरशिप की सभी परिसंपत्तियों का वितरण अभी होना बाकी है।

न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि विघटन न होने के बारे में मध्यस्थ के निष्कर्ष और यह मानना ​​कि पार्टनरशिप फर्मों को अवार्ड की तिथि से भंग कर दिया जाएगा, किसी भी अवैधता या विकृति से ग्रस्त नहीं है। इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

अदालत ने पार्टनरशिप फर्मों के अपंजीकृत होने के कारण मुकदमे के सुनवाई योग्य न होने के संबंध में प्रतिवादी का तर्क भी खारिज कर दिया और अनंतेश भक्त बनाम नयना एस. भक्त, (2017) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि धारा 69 का प्रतिबंध न्यायालयों और सिविल मुकदमे तक सीमित है। यह तब लागू नहीं होता, जब पार्टनर्स के बीच विवादों को मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है। जब तक पार्टनरशिप डीड में भागीदारों के बीच विवादों को आर्बिट्रेशन के लिए भेजने का प्रावधान करने वाला क्लॉज शामिल है, पार्टनरशिप फर्म का रजिस्ट्रेशन न होना आर्बिट्रेशन के लिए संदर्भ को अस्वीकार करने का कोई आधार नहीं है।

अदालत ने याचिकाकर्ता के परिसीमा विवाद को भी खारिज कर दिया और कहा कि परिसीमा की गणना उस तिथि से की जानी चाहिए, जिस दिन कार्रवाई का कारण उत्पन्न हुआ था। कानूनी नोटिस 29.08.2005 दिनांकित था। 28.08.2002 से पहले के दावों के कुछ हिस्सों के बारे में मध्यस्थ के निष्कर्षों में कोई कमी नहीं है, जो समय-सीमा के कारण वर्जित थे।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पक्षकार यह इंगित करने में सक्षम नहीं हैं कि दावों के निर्धारण में कोई विकृति थी या नहीं, जो तथ्यों और कानून की उचित प्रशंसा पर आधारित है। मध्यस्थ के निष्कर्षों का गुण-दोष के आधार पर पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

तदनुसार, वर्तमान याचिका को गुण-दोष से रहित होने के कारण खारिज कर दिया गया।

केस टाइटल: हरिओम शर्मा बनाम सौमन कुमार चटर्जी और अन्य

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