वित्त अधिनियम की धारा 73(4b) के तहत जहां ऐसा करना संभव है, वाक्यांश सेवा कर बकाया निर्धारित करने की समयसीमा को 'संकेतक नहीं बनाता: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2024-12-30 08:00 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि जहां ऐसा करना संभव है, वाक्यांश का उपयोग वित्त अधिनियम, 1994 की धारा 73(4बी) के तहत सेवा कर बकाया निर्धारित करने के लिए निर्धारित समयसीमा को संकेतक प्रकृति का नहीं बनाता।

एक्टिंग चीफ जस्टिस विभु बाखरू और जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा की खंडपीठ ने कहा,

"कराधान के प्रभावी प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिए धारा 73(4बी) को वित्त अधिनियम में तैयार और पेश किया गया। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कराधान किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन राजस्व विभाग द्वारा अपने मामलों में मुकदमा चलाने में की गई अत्यधिक देरी को सीमा अवधि को नौ वर्ष तक बढ़ाकर उनके पक्ष में नहीं माना जा सकता, खासकर तब जब प्रावधान के अनुसार कार्यवाही छह महीने/एक वर्ष के भीतर पूरी होनी चाहिए। धारा 73(4बी) में प्रावधान है कि अधिकारी को नोटिस की तिथि से छह महीने या एक वर्ष के भीतर देय सेवा कर की राशि निर्धारित करनी होगी (जैसा भी मामला हो), जहां ऐसा करना संभव हो।”

इस मामले में याचिकाकर्ता, दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और दिल्ली जल बोर्ड जैसी संस्थाओं के लिए पानी की पाइपलाइन उपलब्ध कराने/बिछाने/बदलने जैसी गतिविधियों में लगे हुए हैं, लगभग नौ वर्षों के अंतराल के बाद न्यायिक कार्यवाही फिर से शुरू होने से व्यथित थे। मामले के तथ्यात्मक मैट्रिक्स के अनुसार, दिनांक 18.09.2024 को सुनवाई का नोटिस दिनांक 21.04.2015 को जारी किए गए कारण बताओ नोटिस के अनुसरण में जारी किया गया।

याचिकाकर्ता ने दलील दी कि एस.सी.एन. के संबंध में सुनवाई 19.10.2015 को ही पूरी हो गई, लेकिन उसे इस बारे में कोई आदेश नहीं दिया गया। हालांकि, करीब नौ साल बाद विभाग द्वारा 18.09.2024 को सुनवाई का नया नोटिस जारी किया गया। याचिकाकर्ता ने न्यायालय को यह भी बताया कि उसे 2010 में एस.सी.एन. जारी किया गया, जिसे तत्कालीन सेवा कर आयुक्त ने वापस ले लिया। इस निर्णय के खिलाफ राजस्व की अपील को CESTAT ने खारिज कर दिया, जिसे राजस्व ने चुनौती नहीं दी।

यह दलील दी गई कि चूंकि सीएसटी ने पहले ही कार्यवाही बंद कर दी, इसलिए नौ साल बाद फिर से न्यायिक कार्यवाही शुरू करने का कोई कानूनी औचित्य नहीं है। यह भी दलील दी गई कि वित्त अधिनियम की धारा 73(4बी)(ए) और (बी) के अनुसार न्यायिक कार्यवाही समय-बाधित हो गई है।

दूसरी ओर राजस्व ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता वित्त अधिनियम की धारा 65(39ए) में परिभाषित 'निर्माण, कमीशनिंग या स्थापना' सेवाओं के अंतर्गत वर्गीकृत गतिविधियों पर कर का भुगतान नहीं कर रहा था।

इसने प्रस्तुत किया कि 2015 में जारी एससीएन के संबंध में कार्यवाही स्थगित कर दी गई, क्योंकि इसी तरह का मामला CESTAT के समक्ष विचाराधीन था और स्थगन के बारे में याचिकाकर्ता को सूचित कर दिया गया।

राजस्व की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि वित्त अधिनियम की धारा 73(4बी)(ए) और (बी) के तहत इस्तेमाल की गई भाषा से यह स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्य होने के बजाय केवल सुझावात्मक है।

निष्कर्ष

शुरू मे हाईकोर्ट ने नोट किया कि भले ही राजस्व ने तर्क दिया कि मामला स्थगित कर दिया गया, लेकिन मामला कॉल बुक में स्थानांतरित नहीं किया गया।

उन्होंने टिप्पणी की,

“राजस्व विभाग का यह तर्क कि इस मामले में कार्यवाही को स्थगित रखना उचित था, क्योंकि इसी तरह के मुद्दे से संबंधित एक अपील CESTAT के समक्ष लंबित थी, अयोग्य है। याचिकाकर्ता के खिलाफ अन्य मामले में अपील दायर करना, हालांकि समान मुद्दे पर और CESTAT के समक्ष इसका लंबित होना, वित्त अधिनियम की धारा 73(4बी) में निर्धारित समय सीमा के भीतर कारण बताओ नोटिस जारी किए जाने के बाद वर्तमान मामले में कार्यवाही न करने का वैध कारण नहीं माना जा सकता है।”

न्यायालय ने कहा कि भले ही राजस्व की CESTAT के समक्ष अपील लंबित थी, इस मामले में कार्यवाही जारी रह सकती थी। हालांकि, राजस्व ने अपील में परिणाम की प्रतीक्षा करना चुना, जबकि याचिकाकर्ता को यह धारणा रह गई कि चूंकि उसे राजस्व से कोई प्रतिकूल संचार/आदेश प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए कार्यवाही और कारण बताओ नोटिस बंद कर दिया गया।

न्यायालय ने कहा,

"भले ही कोई यह स्वीकार करता है कि वित्त अधिनियम की धारा 73(4बी) में उल्लिखित छह महीने/एक वर्ष की समयावधि केवल सुझावात्मक है, लेकिन यह मानना ​​अनुचित होगा कि मामले के दिए गए तथ्यों और परिस्थितियों में इसे नौ वर्ष की अवधि तक बढ़ाया जा सकता है।

इसने सुंदर सिस्टम प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ और अन्य (2020) का हवाला दिया, जहां हाईकोर्ट ने माना कि भले ही सीमा के लिए कोई समय अवधि निर्धारित न हो, वैधानिक प्राधिकरण को उचित अवधि के भीतर अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो यह कार्यवाही को प्रभावित करेगा। इसने सिद्धि विनायक सिंटेक्स प्राइवेट लिमिटेड लिमिटेड बनाम भारत संघ (2017) पर भी भरोसा किया, जिसमें गुजरात ने केंद्रीय उत्पाद शुल्क अधिनियम, 1944 की धारा 11ए के संबंध में टिप्पणी की कि जब विधायिका ने जहां ऐसा करना संभव है अभिव्यक्ति का उपयोग किया है तो इसका मतलब है कि यदि सामान्य तौर पर निर्दिष्ट समय सीमा के भीतर शुल्क की राशि निर्धारित करना संभव है तो ऐसा किया जाना चाहिए, जब विधायिका ने अपने विवेक से विशेष समय सीमा निर्धारित की है तो CBEC के पास किसी अन्य मामले में निर्णय की प्रतीक्षा करने के लिए ऐसी समय सीमा को वर्षों तक बढ़ाने की कोई शक्ति या अधिकार नहीं है।

उपर्युक्त के मद्देनजर न्यायालय ने 18.09.2024 की विवादित सुनवाई नोटिस को समय-बाधित होने के आधार पर रद्द कर दिया।

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