छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बार काउंसिल में नामांकन न होने के कारण न्यायपालिका एग्जाम एडमिट कार्ड न दिए जाने को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने मंगलवार (16 सितंबर) को सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा-2024 के लिए रजिस्टर्ड कई अभ्यर्थियों द्वारा दायर रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया। इन अभ्यर्थियों में लोक अभियोजक और सहायक लोक अभियोजक भी शामिल है, जो परीक्षा के विज्ञापन की तिथि पर बार काउंसिल में 'एडवोकेट' के रूप में नामांकित नहीं है। इन अभ्यर्थियों ने एडमिट कार्ड न दिए जाने को चुनौती दी थी, जबकि उन्हें पहले परीक्षा के लिए आवेदन करने की अनुमति दी गई।
बुधवार (17 सितंबर) शाम को वेबसाइट पर उपलब्ध कराए गए इस तर्कसंगत आदेश में चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने याचिकाओं पर विचार करने में स्पष्ट अनिच्छा व्यक्त की और निष्कासित अभ्यर्थियों की "पिछले दरवाजे से प्रवेश पाने का प्रयास" करने के लिए आलोचना की।
आगे कहा गया-
“याचिकाकर्ताओं द्वारा संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के उल्लंघन का निराधार तर्क दिया गया। सरकारी नौकरी के लिए योग्यता निर्धारित करने वाले किसी विधायी प्रावधान को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि उम्मीदवारों का एक समूह इससे व्यथित है। याचिकाकर्ता विधायी क्षमता की कमी, स्पष्ट मनमानी या संवैधानिक गारंटियों के उल्लंघन को प्रदर्शित करने में विफल रहे हैं। जो आरोप लगाया गया, वह नीति से असहमति के अलावा और कुछ नहीं है, जो न्यायिक हस्तक्षेप का अनुचित आधार है।”
मामले का पृष्ठभूमि
कुछ याचिकाकर्ता पहले से ही सरकारी अभियोजक/सहायक सरकारी अभियोजक के रूप में सरकारी पदों पर कार्यरत। उन्होंने कहा कि विज्ञापन में निजी प्रैक्टिस करने वाले वकीलों और सरकारी अभियोजकों के बीच अनुचित रूप से अंतर किया गया। उन्होंने कहा कि ऐसा भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के विरुद्ध है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि दिनांक 05.07.2024 की अधिसूचना और दिनांक 23.12.2024 के विज्ञापन द्वारा लाया गया संशोधन दीपक अग्रवाल बनाम केशव कौशिक एवं अन्य (2013) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित विधि की स्थापित स्थिति के विपरीत है, जिसमें यह माना गया कि लोक अभियोजक और विधि अधिकारी नियमित रूप से न्यायालयों में उपस्थित होते हैं और वकीलों के समान कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। उन्हें न्यायिक सेवा में पात्रता के प्रयोजनों के लिए एडवोकेट एक्ट के अर्थ में वकील माना जाना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि लोक अभियोजक/विधि अधिकारी के रूप में उनकी सेवा उच्चतर न्यायिक सेवा में भर्ती के लिए पात्रता में गिनी जाती है, जो सीधे बार से की जाती है। जब उन्हें जिला जज के संवर्ग में नियुक्ति के लिए पात्र माना जाता है तो यह आश्चर्यजनक है कि उन्हें केवल गैर-नामांकन के तकनीकी आधार पर प्रवेश स्तर के पद, अर्थात सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के लिए अयोग्य कैसे माना गया।
उन्होंने आगे तर्क दिया कि हाईकोर्ट के 22.01.2025 के आदेश के अनुसार, जब गैर-नामांकित उम्मीदवारों को भर्ती के लिए आवेदन करने की अनुमति देने हेतु शुद्धिपत्र लाया गया तो उन्हें इस समय, जब प्रारंभिक परीक्षा बस कुछ ही दिन दूर है, अर्थात 21.09.2025, मनमाने ढंग से प्रक्रिया से बाहर नहीं किया जा सकता।
दूसरी ओर, डिप्टी एडवोकेट जनरल शशांक ठाकुर ने CGPSC की विवादित कार्रवाई का पुरज़ोर बचाव करते हुए तर्क दिया कि यह सुप्रीम कोर्ट के AIJA निर्णय के पूर्णतः अनुरूप है। इसके अलावा, जब याचिकाकर्ता इस कार्रवाई को अधिकार-बाह्य घोषित करने का कोई कारण बताने में विफल रहे हैं तो उन्होंने तर्क दिया कि यह उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, यह स्पष्ट रूप से कहना कि यह उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, उनकी मदद नहीं करेगा।
अदालत का निष्कर्ष
अदालत ने AIJA निर्णय के पैरा 90 पर स्पष्ट रूप से भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी -
"यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वर्तमान कार्यवाही के लंबित रहने के कारण स्थगित रखी गई सभी भर्ती प्रक्रियाएं, विज्ञापन/अधिसूचना की तिथि पर लागू नियमों के अनुसार आगे बढ़ेंगी।"
खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के पद पर भर्ती के लिए विज्ञापन 23.12.2024 को जारी किया गया और उस समय प्रचलित नियम/पात्रता मानदंड यह था कि उम्मीदवार के पास किसी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी से लॉ डिग्री होनी चाहिए और एडवोकेट एक्ट, 1961 के तहत अधिवक्ता के रूप में नामांकित होना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 19.01.2024 को जब कुल रिक्तियों की संख्या अधिसूचित की गई, न्यायिक सेवा के लिए आवेदन करने हेतु बार नामांकन को पूर्व शर्त के रूप में अनिवार्य करने वाला कोई नियम नहीं था। ऐसा संशोधन 05.07.2024 को ही पेश किया गया। इसलिए AIJA के निर्णय के अनुसार, 19.01.2024 को प्रचलित नियम, अर्थात् नामांकन की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं, लागू होना चाहिए।
हालांकि, अदालत ने इस दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया-
“दिनांक 19.01.2024 की अधिसूचना केवल रिक्तियों की कुल संख्या को सूचित करने वाली अधिसूचना है और यह पद पर भर्ती के लिए अधिसूचना/विज्ञापन नहीं है, क्योंकि भर्ती के लिए अधिसूचना में न केवल रिक्तियों की संख्या निर्दिष्ट होती है, बल्कि पात्रता मानदंड, वेतनमान, आरक्षण की शर्तें, परीक्षा का तरीका, फॉर्म भरने का तरीका भी निर्दिष्ट होता है, जो 19.01.2024 की अधिसूचना में उपलब्ध नहीं है। भर्ती अधिसूचना/विज्ञापन केवल 23.12.2024 को जारी किया गया, तब तक 05.07.2024 की अधिसूचना पहले से ही अस्तित्व में है।”
परिणामस्वरूप, अदालत का विचार था कि AIJA मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में राज्य सरकार द्वारा दिनांक 21.02.2025 की अधिसूचना द्वारा लाया गया शुद्धिपत्र, जिसके द्वारा वकील के रूप में नामांकित होने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया, टिक नहीं सकता। परिणामस्वरूप, जिन उम्मीदवारों का 23.12.2024 को बार काउंसिल में नामांकन नहीं हुआ, उन्हें अब भर्ती प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया।
याचिकाओं को खारिज करते हुए अदालत ने कठोर टिप्पणी की-
"इसलिए ये याचिकाएं इस अदालत के असाधारण अधिकार क्षेत्र का दुरुपयोग हैं। ये गलत धारणाओं, मिसाल की गलत व्याख्या और इस अदालत को वैधानिक नियमों को फिर से लिखने के लिए आमंत्रित करके न्यायिक सेवा में पिछले दरवाजे से प्रवेश पाने के प्रयास पर आधारित हैं - जो कानून में अस्वीकार्य है।"
Case Title: Himalaya Ravi & Anr. v. The State of Chhattisgarh & Ors.