जब रोगी के परिवार के सदस्य ऑपरेशन के लिए सहमति देते हैं, तो वे इसके परिणाम सहन करने के लिए भी सहमति देते हैं, हाईकोर्ट का फैसला

Update: 2019-09-15 09:25 GMT

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2 डॉक्टरों के खिलाफ चिकित्सीय लापरवाही के लिए आपराधिक कार्रवाई को रद्द कर दिया और कहा कि "जोखिम हमेशा शामिल होता है और जब रोगी/परिवार के सदस्य ऑपरेशन किए जाने के लिए सहमति देते हैं, तो वे इस तरह के ऑपरेशन और उससे जुड़े परिणाम  सहन करने के लिए सहमति देते हैं।"

अधिवक्ता भानु भूषण जौहरी के माध्यम से डॉ. आज़म हसीन और डॉ. आदिल महमूद अली द्वारा दायर अपील के जरिये यह मामला न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह- I के समक्ष रखा गया। उन्होंने अतिरिक्त सीजेएम की अदालत में लंबित, आईपीसी की धारा 304 ए के तहत उनके खिलाफ शुरू की गई कार्रवाई को रद्द करने की मांग की।

यह शिकायत, उस मृतक के परिवार द्वारा दायर की गई थी, जिसे सड़क दुर्घटना के बाद J. N. मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन 23 दिनों के बाद उसका निधन हो गया, जब डॉ. आदिल महमूद अली एक नर्स के साथ मरीज की छाती में स्थापित ट्यूब को काटने की प्रक्रिया में थे।

FIR के अनुसार, डॉक्टर ने मरीज की मां और बहन की मौजूदगी में ब्लेड की सहायता से ट्यूब को काटने की कोशिश की और जैसे ही उसे काटा गया, बड़ी मात्रा में खून बह निकला, जिसे डॉक्टर रोक नहीं पाए और अंत में, मरीज को मृत घोषित किया गया। अपीलकर्ताओं ने उक्त FIR का विरोध किया और यह आरोप लगाया कि पूरी जांच किए बिना, चार्जशीट को नियमित तरीके से दायर किया गया था।

यह आगे प्रस्तुत किया गया कि:

1. डॉ. हसीन को इस पूरे मामले में किसी भी भूमिका के बिना, घसीटा गया था और उन्हें कथित रूप से उक्त मौत के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था, क्योंकि आपराधिक मामलों में उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से (Vicariously) लागू करने की ऐसी कोई अवधारणा नहीं है।

2. डॉ. आदिल ने रोगी/मृतक की देखभाल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया, लेकिन वह अपने प्रयास में सफल नहीं हो सके, जिसके परिणामस्वरूप मरीज़ की मृत्यु हो गई और यह, ज्यादा से ज्यादा, सिविल दायित्व को आकर्षित करता है और आपराधिक दायित्व को नहीं।

3. AMU की जांच समिति के अनुसार, "इस तरह की मौत बहुत ही दुर्लभ मामलों में होती है और एक जूनियर डॉक्टर से ऐसी असामान्य प्रक्रियात्मक जटिलता के बारे में सोचने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।" इस प्रकार, डॉ. आदिल, एक जूनियर डॉक्टर होने के कारण दुर्घटना के लिए उत्तरदायी नहीं बन सकते।

4. उत्तर प्रदेश मेडिकल काउंसिल की एथिकल कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, दुर्लभ जटिलता के मामले में, यह आशा करना अनुचित होगा कि इस तरह की असामान्य प्रक्रियात्मक जटिलता के बारे में जूनियर डॉक्टर सोचे। यह स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि डॉ. आदिल, जो एक जूनियर डॉक्टर थे, को जानबूझकर की गयी किसी लापरवाही के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता था, जिसके परिणामस्वरूप मरीज़ की मृत्यु हो गई।

5. FIR और पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बीच विरोधाभास था, जहाँ FIR के अनुसार छाती की नली को हटाने के कारण रोगी की मृत्यु हुई थी, वहीँ पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार मृत्यु का कारण septicemic shock था।

6. मार्टिन एफ. डीसूजा बनाम मोहम्मद इश्फाक, (2009) 3 एससीसी 1 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार, कोई भी अदालत किसी डॉक्टर के खिलाफ प्रोसेस इशू नहीं कर सकती जबतक कि उस मामले को, जिसके संबंध में चिकित्सीय लापरवाही का आरोप लगाया जाता है, सम्बंधित क्षेत्र के किसी सक्षम डॉक्टर या उस क्षेत्र में विशेष डॉक्टरों की एक समिति को पहले संदर्भित न कर दिया जाए। हालांकि, इस मामले में, विशेषज्ञों की कोई समिति गठित नहीं की गई थी और AMU के कुलपति के आदेश से गठित जांच समिति ने कहीं भी यह आरोप नहीं लगाया था कि डॉ. हसीन को आपराधिक लापरवाही के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

दूसरी ओर सरकार के अधिवक्ता, एस. पी. एस. चौहान ने प्रस्तुत किया:

1. AMU की उसी जांच समिति ने स्पष्ट रूप से यह बताया कि डॉ. आदिल की ओर से लापरवाही बरती गई थी, क्योंकि उन्होंने नर्स/पैरा-मेडिकल कर्मचारियों की अनुपस्थिति में, एक निजी वार्ड में, उचित देखभाल किए बिना, इंटर-कोस्टल चेस्ट ड्रेन की प्रक्रिया का संचालन किया था, और इस तरह की किसी भी घटना का सामना करने के लिए उनके पास जीवन रक्षक दवाएं नहीं थी। उन्हें इस तरह के मामलों में परिणाम को ध्यान में रखना चाहिए और उन्हें रोगी के परिवारजनों/साथियों को यह समझाना चाहिए था।

2. रोगी/मृतक का इलाज डॉ. हसीन की देखरेख में किया जा रहा था और उन्होंने मरीज/मृतक के सीने से उक्त ट्यूब को निकालने के लिए जूनियर डॉक्टर को भेजा था और इसलिए, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आपराधिक लापरवाही के लिए उन्हें भी उचित रूप से चार्ज किया गया था।

परिणाम

अदालत ने कुसुम शर्मा एवं अन्य बनाम बत्रा अस्पताल एवं चिकित्सा अनुसंधान केंद्र एवं अन्य (2010) 3 एससीसी 480, में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित आपराधिक लापरवाही के मामले में लागू किए जाने वाले सिद्धांतों को ध्यान में रखा, और यह माना कि अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई आपराधिक दायित्व नहीं बनता है।

यह कहा गया कि "एक डॉक्टर या एक सर्जन पर आपराधिक दायित्व को स्थापित करने के लिए, लापरवाही के मानक को साबित करने की आवश्यकता इतनी अधिक होनी चाहिए, जिसे "घोर लापरवाही" या "Recklessness" के रूप में वर्णित किया जा सके। केवल आवश्यक देखभाल, ध्यान या कौशल की कमी या कुछ डिग्री की अपर्याप्तता या पर्याप्त देखभाल और सावधानी की मांग, डॉक्टर को आपराधिक रूप से उत्तरदायी बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी।" डॉक्टर सुरेश गुप्ता बनाम गवर्नमेंट ऑफ़ एनसीटी ऑफ़ डेल्ही एवं अन्य (2004) 6 SCC 422, के मामले पर, इस तर्क को लेकर भरोसा किया गया था कि एक आम आदमी की राय को, कि मौत घोर लापरवाही का परिणाम थी, अपीलकर्ताओं को अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है।

"इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब कोई मरीज चिकित्सीय उपचार या सर्जिकल ऑपरेशन से गुजरता है, तो मेडिकल व्यक्ति के हर लापरवाही वाले कृत्य को, "आपराधिक" नहीं कहा जा सकता है। इसे "आपराधिक" केवल तभी कहा जा सकता है, जब मेडिकल व्यक्ति, सक्षमता में एक घोर अभाव या निष्क्रियता और अपने मरीज की सुरक्षा के प्रति उदासीनता, और जो कि घोर अज्ञानता या घोर लापरवाही से उत्पन्न हुई पाई जाती है, प्रदर्शित करता है। जहां एक मरीज की मृत्यु, केवल निर्णय की त्रुटि या दुर्घटना का परिणाम होती है, तो उसके साथ कोई आपराधिक दायित्व जोड़ा नहीं जाना चाहिए। केवल असावधानी या पर्याप्त देखभाल और सावधानी की कुछ डिग्री की मांग, सिविल देयता/जिम्मेदारी पैदा कर सकती है लेकिन यह आपराधिक रूप से उत्तरदायी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं होगा", यह अंतिम रूप से कहा गया। 



Tags:    

Similar News