ट्रायल कोर्ट को जमानत पर निर्णय लेते समय पीड़ित को अंतरिम मुआवजे के रूप में उचित राशि देने पर भी विचार करना चाहिए, विशेष रूप से वंचित वर्ग से जुड़े लोगों के मामले में : उड़ीसा हाईकोर्ट

Update: 2020-06-12 03:30 GMT

Orissa High Court

''भयानक अपराध समाज की बुनियादी अच्छाई में विश्वास को चुनौती देता है और अगर इस तरह के अपराध के मामले में किसी प्रकार के उकसावे के लिए एक समझने योग्य प्रतिक्रिया है, तो भी हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि यह नैतिक स्वीकार्यता के बंधन से परे है।'' यह टिप्पणी करते हुए उड़ीसा हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा है कि जमानत के चरण में भी पीड़ित को मुआवजा दिया जाना चाहिए।

एकल पीठ याचिकाकर्ता की तरफ से सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर आवेदन पर विचार कर रही थी। जो आईपीसी की धारा 285, 307 के तहत दर्ज एक मामले के संबंध में जेल में बंद है। आवेदक पर आरोप है कि उसने पीड़ित के शरीर(अदालत के अनुसार उसने ''सद्भाव और मुसीबत में मदद करनी चाही थी'') पर पेट्रोल डाला था , जिससे पीड़ित के शरीर का ऊपरी संवेदनशील हिस्सा गंभीर रूप से जल गया था।

कोर्ट ने कहा कि-

''यह भी जरूरी है कि ट्रायल कोर्ट को इस तरह के मामलों में जमानत पर निर्णय करते समय अंतरिम मुआवजे के तौर पर एक उचित राशि पीड़ित को देने पर भी विचार करना चाहिए। ताकि पीड़ित, विशेष रूप से गरीब और वंचित वर्ग के लोग उक्त राशि का उपयोग अपने चिकित्सा पर आए खर्च को पूरा करने में कर सकें।''

न्यायालय ने कहा कि अपराधों के पीड़ितों के मुआवजे के लिए बढ़ती चिंता के चलते ही वर्ष 2009 में धारा 357ए को आपराधिक प्रक्रिया संहिता में जोड़ा गया था या शामिल किया गया था। यह प्रावधान पीड़ित को यह आश्वस्त करने के उद्देश्य से किया गया था ताकि उसको यह न लगे कि आपराधिक न्याय प्रणाली उसे भूल गई है।

हालांकि 2009 में किए गए इस संशोधन में धारा 357 की विशेषता को स्थिर ही छोड़ दिया गया था। चूंकि इस धारा की भूमिका में ही न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि वह ऐसे मामलों में राज्य को पीड़ित को उचित मुआवजा देने का निर्देश दे सकती है,जिन मामलों में इस धारा के तहत दिया गया मुआवजा कोर्ट को पर्याप्त नहीं लगता है या पीड़ित के पुर्नवास के लिए कम लगता है। या फिर कोई ऐसा मामला है जिसमें आरोपी बरी या आरोपमुक्त हो जाता है,परंतु पीड़ित के पुर्नवास के लिए मुआवजे की जरूरत है।

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि-

''इस प्रावधान के तहत, भले ही अभियुक्त के खिलाफ केस न चलाया जाए ,अगर पीड़ित को पुनर्वास की आवश्यकता है तो पीड़ित राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से अनुरोध कर सकता है कि उसे मुआवजा दिया जाए। यह योजना मुआवजे के संस्थागत भुगतान के लिए रास्ता बनाती है ताकि अपराधी द्वारा पहुंचाई गई किसी भी नुकसान या चोट के लिए उसे राज्य से मुआवजा मिल सकें। इस उद्देश्य के लिए एक कोष बनाने की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई है। इस तथ्य के बावजूद कि कोड की धारा 357 व 357ए के तहत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। उसके बाद भी इस प्रावधान को संस्थागत स्तर पर भूला दिया जाता है।''

इसके अलावा, एकल न्यायाधीश ने इस बात की भी सराहना की है कि पीड़ित को मुआवजा देने के लिए अन्य कानूनों में भी प्रावधान है। जिनके तहत या तो ट्रायल कोर्ट द्वारा या विशेष रूप से स्थापित न्यायाधिकरण द्वारा मुआवजा दिया जा सकता है। मुआवजे के अधिकार की व्याख्या बाद में शीर्ष अदालत ने भी की और इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न अंग माना था।

कोर्ट ने कहा कि

'इसी तरह से ओडिशा सरकार ने धारा 357ए के प्रावधानों के तहत मिली शक्तियों का प्रयोग करते हुए ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 तैयार की है। उक्त योजना के अनुसार जलने के कारण जख्मी हुए पीड़ित को उसकी चोट और संबंधित कारक जैसे चेहरे बिगड़ना आदि के आधार पर मुआवजा दिया जाता है।''

वहीं आपराधिक प्रक्रिया संहिता1973 की धारा 357ए को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि जब भी मुआवजे के लिए न्यायालय सिफारिश करेगा तो जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण,जैसा भी मामला हो सकता है, योजना के तहत प्रदान की जाने वाली मुआवजे की राशि तय करने की जिम्मेदारी निभाएगा।

''यह भी तर्क दिया गया है कि यदि न्यायालय के समक्ष कोई ऐसा मामला आता है जो उसकी अंतरात्मा को हिला देता है और न्यायालय को यह लगता है कि देश के एक नागरिक की राज्य ने अनदेखी की है तो ऐसे मामले में न्यायालय पीड़ित के पुर्नवास के लिए उसे उचित मुआवजा प्रदान करने का निर्देश दे सकता है।''

जज ने फटकारते हुए कहा कि-

''पीड़ितों के लाभ के लिए धारा 357 के तहत मिली शक्ति का उपयोग करने के मामले में आमतौर पर अदालतों द्वारा अनिच्छा दिखाई जाती है। अदालतें अपने आप को सजा देने तक सीमित कर लेती हैं और पीड़ितों के मुआवजे के बारे में कोई उल्लेख नहीं करती हैं। इस तरह वह पीड़ितों के मूल अधिकार को अस्वीकार कर देती हैं।''

तथ्यों और परिस्थितियों को देखने के बाद पीठ ने कहा कि वर्तमान मामला एक फिट केस है,जिसमें ओडिशा राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के माध्यम से पीड़ित को मुआवजा दिया जाना चाहिए।

राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण को चार सप्ताह के भीतर पीड़ित को उचित मुआवजा देने का निर्देश देते हुए अदालत ने कहा कि-

''उक्त प्राधिकरण को पीड़ित की सहायता के लिए आना चाहिए ताकि ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 के तहत पीड़ित को उसके कष्टों और चिकित्सा व्यय के लिए उचित धन उपलब्ध कराया जा सकें।''

पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले में यदि याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया जाता है तो ट्रायल कोर्ट को आगे के मुआवजे पर विचार करना चाहिए। जो कि पूर्वोक्त राशि के अलावा अपराधी से वसूल किया जा सकता है। इसके अलावा यह भी कहा है कि ट्रायल कोर्ट को इस मामले में सुनवाई जल्दी से जल्दी पूरी करनी होगी।

जमानत याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि-

''उपर्युक्त चर्चा और मामले के तथ्यों व परिस्थितियों को पूरी तरह से ध्यान में रखते हुए, यह न्यायालय याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा करने की इच्छुक नहीं है।'' 

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