एससी/एसटी अधिनियम के तहत विशेष अदालतों को आईपीसी अपराधों का प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का अधिकार : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2020-03-12 12:15 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत विशेष अदालतों को आईपीसी की धाराओं के तहत आने वाले अपराधों पर प्रत्यक्ष रूप से संज्ञान लेने का अधिकार है और सीआरपीसी की धारा 193 के तहत किसी मजिस्ट्रेट द्वारा इस मामले की सुपुर्दगी आवश्यक पूर्व शर्त नहीं है।

सीआरपीसी की धारा 193 के अनुसार, कोई सत्र अदालत मूल क्षेत्राधिकार वाली अदालत के रूप में ऐसे किसी अपराध का संज्ञान नहीं ले सकती जब तक कि यह केस उसे सीआरपीसी के तहत किसी मजिस्ट्रेट ने नहीं भेजा हो।

याचिकाकर्ता ने एससी/एसटी अधिनियम के तहत मेरठ के विशेष सत्र जज के आदेश के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की थी। इस आदेश में उसके ख़िलाफ़ एससी/एसटी अधिनियम के तहत आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 302 और एससी/एसटी अधिनियम के 3(2)(V) के तहत चार्ज लगाए गए थे।

उसने क्षेत्राधिकार का मामला उठाया और कहा कि अदालत को आईपीसी के तहत होनेवाले अपराधों पर प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का अधिकार नहीं है और सीआरपीसी की धारा 193 और 207 से 209 के तहत दिए गए प्रावधानों को अपनाना चाहिए था।

यह कहा गया कि एससी/एसटी अधिनियम में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि ऐसे सभी मामले, जिनमें सीआरपीसी के तहत संयुक्त रूप से चार्ज लगाए जा सकते हैं, में उसी सुनवाई में चार्ज लगाए जाएँ और इस वजह से आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराधों की सुनवाई विशेष अदालत नहीं कर सकती है।

पर अदालत ने इस दलील को ठुकरा दिया। उसने कहा, "अगर ऐसा पाया जाता है कि अपराध आईपीसी और एससी/एसटी अधिनियम के तहत हुआ है तो इसकी सुनवाई एक ही अदालत, यानी विशेष अदालत करेगी जिसे प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का अधिकार मिला हुआ है।"

अदालत ने कहा कि एससी/एसटी अधिनियम को संशोधित किया गया है उसकी धारा 14 में विशेष अदालत को आईपीसी मामलों का प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का अधिकार देने का प्रावधान जोड़ दिया गया है।

न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह -I ने कहा,

"अगर यह पाया जाता है कि कोई अपराध आईपीसी के अलावा एससी/एसटी अधिनियम के तहत भी हुआ है तो इस मामले की सुनवाई एक ही अदालत, विशेष अदालत करेगी जिसे प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का यह अधिकार मामलों के निपटारे में होनेवाली देरी की वजह से दिया गया है।"

अदालत ने कहा कि अगर विशेष अदालत को संयुक्त सुनवाई की अनुमति नहीं दी गई और आईपीसी के अपराधों के लिए अलग सुनवाई हुई तो यह न्याय के विरुद्ध होगा।

अदालत ने कहा,

"वर्तमान मामले में एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(2)(V) और आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध होने की बात है, इसलिए अगर सत्र अदालत को आईपीसी के मामले की सुनवाई और विशेष अदालत को एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामले की सुनवाई को कहा गया तो यह न्याय की विफलता होगी। इससे गड़बड़ी की स्थिति पैदा होगी।"

अदालत ने इस क्रम में मध्य प्रदेश राज्य बनाम भूरजी, (2001) 7 SCC 679 के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी ज़िक्र किया।

हाईकोर्ट ने कहा कि इस मामले में आए फ़ैसले को वर्तमान मामले पर लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह मामला एससी/एसटी अधिनियम की धारा 14 को संशोधित करने से पहले का है जिसके तहत विशेष अदालत को मामले का प्रत्यक्ष संज्ञान लेने का अधिकार दिया गया है।

अदालत ने कहा, "

निचली अदालत ने उपरोक्त धारा के तहत इस मामले का जो प्रत्यक्ष संज्ञान लिया है उसमें कुछ भी ग़ैरक़ानूनी नहीं है और वक़ील ने जो आपत्ति जताई है उसमें कुछ भी दम नहीं है।"

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