डेथ पेनल्टीः सजा देना औपचारिकता का रूप लेता जा रहा है, ट्रायल कोर्ट को ट्रेनिंग की जरूर हैः सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में प्रोजेक्ट 39 ए ने '40 इयर्स ऑफ डेथ पेनल्टी; द अनसर्टेन लेगसी ऑफ बचन सिंह' विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया। वेबिनार में वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने प्रोजेक्ट 39 ए के कार्यकारी निदेशक अनूप सुरेंद्रनाथ के साथ बातचीत की।
वेबिनार में प्रोजेक्ट 39 ए की ओर से जारी एक रिपोर्ट " डेथ पेनल्टी सेंटसिंग इन ट्रायल कोर्ट्स: दिल्ली, मध्य प्रदेश एंड महाराष्ट्र (2000-2015)" की जांच हुई और उसी रिपोर्ट पर रेबेका जॉन के साथ सवाल-जवाब हुए।
जॉन ने रिपोर्ट पर कहा-"2016 की रिपोर्ट में मौत की सजा पाए 372 कैदियों और उनके परिजनों का साक्षात्कार लिया गया था था, साथ ही ट्रायल कोर्ट द्वारा 2000 से 2015 के बीच दी गई 1500 मौत की सजाओं के मुकदमों की समीक्षा की गई थी, जिसमें पाया गया गया कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई मौत की सजा के मामलों में केवल 4.9% मामलों की ही अपीलीय न्यायालयों में पुष्टि की गई।"
एक अन्य रिपोर्ट में, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के 60 पूर्व न्यायाधीशों का साक्षात्कार लिया गया था, सर्वसम्मति से माना गया कि मृत्युदंड के मामलों में न्याय तंत्र ने निराश किया, सबूतों को गढ़ा गया और आरोपियों को वकील तक नहीं दिया गए। इन सबका नतीजा यह रहा है कि ट्रायल कोर्ट ने गलत तरीके से सजा दी। फिर भी न्यायाधीशों ने माना कि मृत्युदंड देने अनुचित नहीं है।
रेबेका जॉन ने कहा,"ट्रायल कोर्ट में, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की गलत समझ के आधार पर सुपर-फास्ट तरीके से सजा दी जाती है, और यह उन त्रुटियों का आधार बन जाती है, जो उच्चतर न्यायालयों में होती हैं।"
रिपोर्ट में न्यायालयों और अधिवक्ताओं में कानून की समझ की कमी की भी चर्चा की गई है। जॉन कहती हैं कि हमारे पास सबसे अच्छा कानूनी मामला बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य [AIR 1980 SC 898] है। उन्होंने कहा, "बचन सिंह के तीन साल बाद, मच्छी सिंह (बनाम पंजाब राज्य [1983]) का मामला आया और अपीलिंग जजमेंट बना, जबकि बचन सिंह का फैसला संविधान पीठ ने दिया था।"
जॉन ने राजबीर बनाम राजस्थान राज्य (1997) के मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें केवल अपराध पर गौर किया गया था, अन्य कारकों को दरकिनार कर दिया गया था। जॉन ने कहा कि अदालतें मृत्युदंड के मामलों में बचन सिंह की "दुर्लभतम" की अवधारणा का उपयोग करती हैं, जबकि महत्वपूर्ण यह देखना है कि क्या जीवन के सभी विकल्प समाप्त हो चुके हैं।
"मुझे 1977 में दिया जे कृष्णा अय्यर के फैसले की याद आ रहा है। उन्होंने कहा था कि प्री-ट्रायल स्टेज पर बेल या जेल जैसे सवाल आपराधिक न्याय प्रणाली का धुंधला कोना हैं, और इन सवालों का जवाब आमतौर पर बेंच की समझ पर टिका होता है, जिसे न्यायिक विवेक कहा जाता है। मुझे लगता है कि इसका उपयोग मौत की सजा के मामलों में भी किया जा सकता है, क्योंकि वहां भी कोई दिशा-निर्देश नहीं मौजूद हैं।"
जॉन ने कहा मृत्युदंड के मामलो में संस्थागत सुसंगतता का अभाव है। संस्थागत सुसंगता न होने के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार अपना ही खंडन किया है।
क्रिमिनल लॉ जुरिस्प्रूडन्स के संबंध में
क्रिमिनल लॉ जुरिस्प्रूडन्स की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर जॉन ने कहा, "समस्या यह है कि कई पीनल सेक्शन्स में दंड की एक विस्तृत श्रृंखला है, जज जिनमें से किसी को भी चुन सकता है। ट्रायल जज की सजा का आधार क्या हो? आईपीसी की धारा 124A या 195A को देखें। उनमें जेल या जुर्माना या दोनों एक साथ, का प्रावधान है। मेरे पास विस्तृत सूची है, जिनमें व्यापक रूपरेखाएँ मौजूद हैं। यह खंडपीठ का विवेक है! वास्तव में इसका कोई कारण नहीं होता है कि एक ही मामले में किसी को कम सजा मिली और किसी को सख्त सजा मिली। यह वास्तव में सिस्टम की समस्या है।"
ट्रायल कोर्ट के जजों पर प्रभाव
सुरेंद्रनाथ ने पूछा, "कानून की किताबों में विधायी मार्गदर्शन का अभाव है। और क्या होता है कि यदि विधायी स्पष्टता के अभाव में आगे भी न्यायिक भ्रम होता है। यह कैसे ट्रायल कोर्ट के जजों को प्रभावित करता है?"
जॉन ने जवाब दिया कि वह अदालत में इस मानसिकता के साथ जाती हैं कि जजों को कानून के बारे में नहीं पता है, हालांकि, समस्या इस बात से होती है कि अधिकांश वकील भी कानून से अनजान हैं।
अपीलीय अदालत की सुनवाई पर ट्रायल कोर्ट उचित प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता का प्रभाव
सुरेंद्रनाथ ने बातचीत में ट्रायल कोर्ट में वकीलों की कानूनी प्रक्रियाओं के संबंध में समझ के अभाव का सवाल उठाया। उन्होंने पूछा कि ट्रायल कोर्ट में हुई त्रुटियों का अपीलीय न्यायालयों पर क्या प्रभाव पड़ता है। जॉन ने कहा कि ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही किसी मुकदमे का कठिनतम चरण होती है, जहां केस का ढांचा रखा जाना चाहिए,जिसमें वकीलों को जिरह और सबूत (जैसे डीएनए आदि)जैसे पहलुओं से लैस होने की जरूरत है।
"अधिकांश वकील को इनकी जानकारी नहीं हैं। बड़े शहरों के वकील अभी भी बहुत कुछ सीख रहे हैं। डीएनए जैसी चीजे बहुत जटिल लगती है। हम केवल पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों से जिरह कर पाते हैं। डीएनए जैसी तकनीकी जानकारियों को कोई चुनौती नहीं दी जाती है।"
दिल्ली गैंगरेप केस (दिसंबंर 2016)
सुरेंद्रनाथ ने जॉन से दिल्ली गैंगरेप मामले की अदालती कार्यवाही में शामिल होने और उसके बारे में जनता की धारणा के बारे में पूछा। उन्होंने ऐसे मामलों में लोगों का प्रतिनिधित्व करने में वकीलों को होने वाली मुश्किलों के बारे में पूछा, जहां परिणाम तथ्यों पर आधारित होता है न कि साक्ष्य पर। जॉन, एडवोकेट वृंदा ग्रोवर और सीनियर एडवोकेट अंजना प्रकाश केस का हिस्सा थे।
जॉन ने अपने जवाब में कहा, "जिस समय मुझे मामले में पेश होने के लिए कहा गया था, हम बहुत बुनियादी चीजों की बात कर रहे थे। एक दया याचिका दायर की गई थी और" शत्रुघ्न चौहान "के मामले में कहा गया था कि देरी के लिए कुछ रियायत दी जानी थी। अभी कुछ समय बाकी था। उच्च न्यायालय के स्तर पर उचित स्तर पर प्रतिक्रिया हुई थी। मैंने इस बारे में बाद में विचार किया, लेकिन मुझे लगता है कि कभी-कभी अदालतें ऐसे मामलों को पसंद नहीं करती हैं, जिनका इतनी मजबूती से प्रतिनिधित्व किया जा रहा हो। मैं शारीरिक हावभाव से से समझ सकती हूं कि उन्हें पसंद नहीं था कि मैं इस मामले में पेश होऊं।"
जॉन ने सुप्रीम कोर्ट की गड़बड़ियों पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा, "पहला सवाल यह पूछा गया कि अनुच्छेद 72 के तहत हम राष्ट्रपति के फैसले में कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं। हालांकि, शत्रुघ्न चौहान और केहर सिंह, दोनों का कहना है कि राष्ट्रपति को को पूरे मामले की समीक्षा करने और अदालतों से अलग फैसला देने का अधिकार है।।"
जॉन ने यह भी कहा कि अपराधों की आलोचना के संबंध में अब परिप्रेक्ष्य में भी बदलाव आया है।