'सफुरा जरगर की असहमति को दबाने के लिए उसे गिरफ्तार और नजरबंद किया गया': संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के कार्यकारी समूह ने मनमाने ढंग से की गई नजरबंदी के खिलाफ कहा
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के कार्यकारी समूह ने आर्बिटरी डिटेंशन यानी मनमाने ढंग से की गई नजरबंदी (WGAD) के तहत अप्रैल 2020 में दिल्ली में सीएए के विरोध प्रदर्शनों के दौरान छात्र कार्यकर्ता सफुरा जरगर की मनमानी गिरफ्तारी और नज़रबंदी की आलोचना की है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के कार्यकारी समूह ने कहा कि,
"नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में भाषण देने के लिए कथित रूप से शामिल होने पर सफुरा की नजरबंदी करके उसे स्वतंत्रता से वंचित किया गया और इसके साथ ही उसे डराकर उसकी असहमति को दबाने की कोशिश की गई।"
11 मार्च को प्रकाशित 11-पेज के बयान में लिखा गया है कि,
" मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) के अनुच्छेद 19 और 20 और कॉन्वेशन के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण ढंग से सभा आयोजित करना लोगों का मौलिक अधिकार है।
आगे लिखा गया है कि,
"सरकार द्वारा सभी लोगों को अपने विचार रखने का मौका दिया जाना चहिए, लोगों के विचारों का सम्मान करना चाहिए और साथ ही सरकार को ऐसे लोगों के विचारों की रक्षा करनी चाहिए, जिनके विचार सरकार आधिकारिक नीति के अनुसार नहीं हैं और ऐसे विचारों की भी रक्षा की जानी चाहिए जो इसके आधाकारिक विचारधारा से अलग है और ज्यूस कॉगेंस के मापदंडों के तहत कस्टमरी अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत व्यक्तिगत रूप से सोचा और प्रकट किया गया है।"
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एक छात्रा सफुरा जरगर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और प्रिवेंशन ऑफ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट के साथ-साथ शस्त्र अधिनियम और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था।
सफुरा जरगर को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सीएए के विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा भड़काने के लिए 10 अप्रैल 2020 को नई दिल्ली में उनके निवास पर गिरफ्तार किया गया था। कथित तौर पर, उसे उनके घर से 10-12 पुरुषों और 1 महिला द्वारा गिरफ्तार किया गया और उनमें से कोई भी वर्दी में नहीं था।
मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट कोर्ट ने 13 अप्रैल 2020 को कड़कड़डूमा में उनकी प्रेग्नेंसी को देखते हुए उनकी जमानत याचिका मंजूर कर ली, जिसमें उन्हें उचित चिकित्सकीय देखभाल की जरूरत है और उसके खिलाफ दर्ज किए गए मुकदमें के मुताबिक यह अपराध जमानती है।
हालांकि उसकी रिहाई के दिन दिल्ली दंगों के पीछे साजिश के आरोप में उसके खिलाफ दर्ज एक और एफआईआर पर उसे वापस गिरफ्तार कर लिया गया।
आखिरकार दिल्ली हाई कोर्ट ने 23 जून, 2020 को उसे मानवीय आधार पर जमानत पर रिहा कर दिया।
वर्किंग ग्रूप ने कहा है कि 27-वर्षीय कार्यकर्ता सफुरा को बिना किसी वारंट के अनियमित तरीके से गिरफ्तार किया गया था। उससे पुलिस स्टेशन में एक सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाया गया और बाद में बिना किसी कानूनी आधार के हिरासत में लिया गया।
वर्किंग ग्रूप ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है कि अगर हिरासत में नहीं लिया गया तो सफुरा अभियोजन से भाग जाएगी।
वर्किंग ग्रूप ने आगे कहा है कि,
" पहले सफुरा को एक ऐसे कथित अपराध के लिए हिरासत में लिया गया, जिसमें उसका नाम तक नहीं है और उस मामले में शिकायतकर्ता पुलिस है। जिस सूचना पर पुलिस ने प्रथम जांच रिपोर्ट दर्ज की है, उसका आधार गुप्त सूचनाकर्ता होने के रूप में उल्लेख किया गया है। इसके बाद एक और प्रथम जांच रिपोर्ट एक अलग पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई उसी के आधार पर सफुरा को गिऱफ्तार किया गया, जो यह दिखाता है कि कथित तौर पर उसे पुलिस द्वारा उसे निशाना बनाने के लिए कानून के दुरुपयोग किया गया।"
वर्किंग ग्रूप ने जोर देकर कहा कि छात्र कार्यकर्ता सफुरा की चिकित्सा स्थिति को देखते हुए, जो उस समय गर्भवती थी, की तत्काल गिरफ्तारी की कोई आवश्यकता नहीं थी, चाहे कितने ही गंभीर आरोप क्यों न थे।
आगे कहा गया कि मजिस्ट्रेट कोर्ट द्वारा जमानत दिए जाने के बाद उसे एक और प्राथमिकी के तहत फिर से गिरफ्तार करना, अधिकारियों और दिल्ली पुलिस के द्वारा सफुरा को लंबे समय तक हिरासत में रखने के इरादे को स्पष्ट रूप से दिखाता है।
वर्किंग ग्रुप ने छात्र कार्यकर्ता सफुरा के खिलाफ लगाए गए आरोपों के संबंध में कहा कि,
"यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि सफुरा जरगर द्वारा की गई सरकार की आलोचना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंसा से संबंधित है या उन्हें यथोचित रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य या नैतिकता, या दूसरों के अधिकारों या प्रतिष्ठा के लिए खतरा माना जा सकता है।"
इस पृष्ठभूमि में वर्किंग ग्रुप ने कहा कि सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की रोकथाम अधिनियम, शस्त्र अधिनियम और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के प्रावधानों के तहत सफुरा पर लगाए गए आरोप उसके विचारों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण ढंग से सभा आयोजित करने के अधिकार पर रोक लगाते है। इस तरह एक महिला के मानवीय अधिकारों का हनन मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुरूप नहीं है।
गौरतलब है कि कार्यकारी समूह ने भारत सरकार को पत्र लिखकर मामले में अपनी प्रतिक्रिया मांगी थी। जैसा कि केंद्र निर्धारित समय के भीतर समूह के समक्ष जवाब प्रस्तुत करने में विफल रहा। इसके बाद कार्यकारी समूह ने एक गैर-नामित स्रोत द्वारा दर्ज की गई शिकायत से संबंधित भेजे गए सबूतों के आधार पर अपनी राय बनाने के लिए आगे बढ़ा।
कार्यकारी समूह ने स्पष्ट रूप से कहा कि,
"यदि स्रोत ने अंतरराष्ट्रीय आवश्यकताओं के उल्लंघन के लिए एक प्रथम दृष्टया मामला स्थापित किया है, जो मनमाने ढंग से हिरासत में लिया गया है, तो सरकार को सबूतों के आधार पर आरोपों का खंडन करना चाहिए (ए/एचआरसी/19/57, पैरा 68)। वर्तमान मामले में, सरकार ने स्रोत द्वारा किए गए प्रथम दृष्टया विश्वसनीय आरोपों को चुनौती नहीं देने का निर्णय लिया है।"
अब इस मामले को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संरक्षण के विशेष संदर्भ के तहत देखा जाएगा।
कार्यकारी समूह ने अंत में कहा कि सफुरा को मुआवजे के अधिकार के तहत मुआवजा मिलेगा और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार अन्य पुनर्मूल्यांकन होगा। आगे केंद्र सरकार से आग्रह किया कि सरकार सफुरा की मनमाने ढंग से की गई स्वतंत्रता के अधिकार के हनन की परिस्थितियों की पूर्ण और स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करे और उसके अधिकारों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ उचित कदम उठाए।