सेक्‍शन 197 सीआरपीसीः पुलिसकर्मियों पर 'अवैध कृत्यों' के लिए मुकदमा चलाने के लिए राज्य की मंजूरी जरूरी नहीं: केरल हाईकोर्ट

Update: 2021-10-11 11:28 GMT

केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि पुलिस की बर्बरता के मामलों में पुलिसकर्मियों पर मुकदमा दायर करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत निर्धारित स्‍वीकृति आवश्यक नहीं है। कोर्ट ने कहा कि बर्बरता के कृत्य पुलिसकर्म‌ियों के आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित नहीं हैं।

जस्टिस मैरी जोसेफ ने कहा, "...आधिकारिक कर्तव्यों की आड़ में अवैध कार्य करने पर आरोपी धारा 197 के तहत परिकल्पित सुरक्षा पाने का उत्तरदायी नहीं हैं। उपरोक्त प्रावधान के तहत विचार की गई स्वीकृति के तहत अवैध कृत्यों की रक्षा का इरादा नहीं है।"

कोर्ट ने कहा कि स्वीकृति को सीआरपीसी में सुरक्षात्मक उपाय के रूप में शामिल किया गया था ताकि अधिकार क्षेत्र की सीमा पार किए बिना वास्तविक रूप से कार्य कर रहे एक लोक सेवक को बचाया जा सके और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकार का विधिवत प्रयोग किया जा सके।

पृष्ठभूमि

मामले में याचिकाकर्ता एजुकोन पुलिस स्टेशन में तैनात थे। उन पर हिरासत में बंद एक आदमी पर बेरहमी से हमला करने का आरोप लगा था। उन्होंने पीड़‌ित की जीभ को सिगरेट से जला दिया था, जिससे वह जब मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश हुआ तो बोल नहीं पाया।

पीड़ित/शिकायतकर्ता ने आरोपी पुलिस अधिकारियों द्वारा उस पर किए गए हमले का विभत्स विवरण सुनाया था।

न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी, कोट्टाराकरम ने उन्हें दोषी पाया और भारतीय दंड संहिता की धारा 323 और 324 सहपठित धारा 34 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषसिद्धि का आदेश पारित किया। अपीलीय अदालत ने इस सजा की पुष्टि की।

पुनरीक्षण याचिका में प्राथमिक तर्क यह दिया गया कि लोक सेवक होने के बावजूद ट्रायल कोर्ट ने संज्ञान लिया और उन पर सीआरपीसी की धारा 197 के तहत राज्य सरकार की स्वीकृति के बिना मुकदमा चलाया गया। इसलिए संज्ञान और ट्रायल की प्रक्रिया को दूषित किया गया।

निचली अदालत और अपीलीय अदालत, दोनों ने यह विचार किया कि सीआरपीसी की धारा 197 के तहत विचाराधीन स्वीकृति, मामले में अनुचित है क्योंकि अभियुक्तों द्वारा कथित रूप से किए गए कार्य किसी भी प्रकार से आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित नहीं है।

अवलोकन

अदालत ने कहा कि धारा 197 के तहत स्वीकृत का मतलब कानून या कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के दायरे से बाहर किसी व्यक्ति के जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करने वाले लोक सेवक की रक्षा करना नहीं है। इसलिए, एक पुलिसकर्मी को संहिता या किसी अन्य अधिनियम द्वारा मान्यता प्राप्त कानूनी क्षेत्र की सीमाओं के भीतर कार्य करना पड़ता है।

"केवल इस कारण से कि पुलिसकर्मी अपनी आधिकारिक ड्यूटी के दौरान एक विभागीय वाहन में वहां पहुंचे, और शिकायतकर्ता को अपने साथ पुलिस स्टेशन ले गए। यह नहीं कहा जा सकता है कि वे अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे। किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने का कुछ कानूनी आधार होना चाहिए, क्योंकि यह अनुच्छेद 21 के तहत हमारे संविधान का जनादेश है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के समर्थन के बिना किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को कम नहीं किया जाएगा।"

अदालत ने आगे कहा कि आधिकारिक कर्तव्यों के वैध निर्वहन की आड़ में शरारती कृत्य करने के बाद आरोपी धारा 197 का लाभ नहीं उठा सकता है।

"तथ्य यह है कि घटना पुलिस स्टेशन के भीतर हुई और पुलिसकर्मियों द्वारा आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन के दौरान हुई।" इसलिए, बेंच ने माना कि आरोपी के खिलाफ अपराध का संज्ञान लेने और उन पर मुकदमा चलाने के संदर्भ में स्वीकृति बिल्कुल अनुचित है।

हाईकोर्ट ने माना कि ट्रायल और अपीलीय न्यायालय गलत नहीं थे और आईपीसी की धारा 323 और 324 सहपठित धारा 34 के तहत अपराधों के लिए अभियुक्तों को दोषी ठहराना पूरी तरह से उचित था।

तदनुसार, पुनरीक्षण याचिकाएं खारिज कर दी गईं।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के गोपालकृष्ण कुरुप और अधिवक्ता एस राजीव पेश हुए, जबकि सरकारी वकील ईसी बिनीश ने राज्य का प्रतिनिधित्व किया।

केस शीर्षक: डी. राजगोपाल बनाम अय्यप्पन और अन्य और जुड़ा हुआ मामला

आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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