सीआरपीसी की धारा 125- सिर्फ इसलिए कि मां भी कमा रही है, पिता को बच्चों के भरण-पोषण से छूट नहींः दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2021-10-10 10:00 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि जिन घरों में महिलाएं भी नौकरी कर रही हैं और पर्याप्त रूप से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम हैं, वहां पति अपने बच्चों को भरण-पोषण प्रदान करने की जिम्मेदारी से स्वतः मुक्त नहीं हो जाता है।

हाईकोर्ट द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत पारित भरण-पोषण के आदेश में संशोधन की मांग के बाद कोर्ट ने अवलोकन किया है।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि बच्चों को पालने और शिक्षित करने का पूरा खर्च एक मां पर नहीं डाला जा सकता है।

कोर्ट ने कहा कि,

''एक पिता का अपने बच्चों के लिए समान कर्तव्य है और ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है कि केवल मां ही बच्चों को पालने और शिक्षित करने के लिए सारे खर्च का बोझ उठाए ... एक पिता अपनी पत्नी को मुआवजा देने के लिए बाध्य है, जो बच्चों पर खर्च करने के बाद, शायद ही खुद के भरण-पोषण के लिए कुछ बचा पाती है।''

भरण-पोषण के आदेश को इस आधार पर भी चुनौती दी गई थी कि जब तक संबंधित बच्चे वयस्क ना हो जाएं तब तक भरण-पोषण का अनुदान अनुरक्षणीय है। हालांकि, मौजूदा मामले में बच्चे ने 18 साल की उम्र पूरी कर ली है।

कोर्ट ने हालांकि माना,

''यह न्यायालय इस वास्तविकता से अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता है कि केवल वयस्क होने को यह अर्थ नहीं है कि बड़ा बेटा पर्याप्त रूप से कमा रहा है। 18 वर्ष की आयु में, यह सुरक्षित रूप से माना जा सकता है कि बेटे ने या तो 12 वीं कक्षा पास की है या वह कॉलेज के प्रथम वर्ष में पहुंचा है। कुछ भी हो, यह उसे ऐसी स्थिति में नहीं रखता है जहां वह खुद को बनाए रखने के लिए कमा सकता है। इससे बच्चे की शिक्षा का सारा खर्च मां पर आ जाएगा और पिता की तरफ से कोई सहायता नहीं मिलेगी और यह न्यायालय ऐसी स्थिति नहीं चाहता है।''

चंद्रशेखर बनाम स्वप्निल व अन्य के मामले पर भरोसा रखा गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने हाई स्कूल के बाद अपना पहला डिग्री कोर्स पूरा करने तक बेटे को भरण-पोषण प्रदान करने की व्यवस्था को बरकरार रखा था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह एक स्वावलंबी व्यक्ति बन जाए और गरिमा के साथ रह सके।

अदालत अपने द्वारा पारित एक आदेश के संबंध में दायर एक आपराधिक समीक्षा याचिका पर विचार कर रही थी, जिसके संदर्भ में यह निर्देश दिया गया था कि पत्नी (संशोधनवादी) को प्रति माह 15,000 रुपये अंतरिम भरण-पोषण के तौर पर तब तक दिए जाएं, जब तक कि उसका बेटा स्नातक नहीं हो जाता है या कमाई शुरू नहीं कर देता है, जो भी पहले हो।

प्रतिवादी पति का मामला यह था कि यह आदेश हाईकोर्ट के दायरे से बाहर था क्योंकि इसे ट्रायल कोर्ट द्वारा मामले में दिए गए अंतिम निर्णय से आगे की अवधि के लिए बढ़ाया नहीं जा सकता था।

न्यायालय ने कहा कि,

''सीआरपीसी की धारा 125 का संदर्भ यह सुनिश्चित करना है कि तलाक के बाद पत्नी और बच्चे निराश्रित स्थिति में न रहें। पति को यह सुनिश्चित करने का वित्तीय बोझ भी उठाना चाहिए कि उसके बच्चे समाज में एक ऐसा स्थान प्राप्त करने मेें सक्षम बन पाएं जहां वे पर्याप्त रूप से अपना भरण-पोषण कर सकें।''

कोर्ट ने आगे कहा कि पिता को सभी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता है और वह अपनी पत्नी को मुआवजा देने के लिए बाध्य है, जो बच्चों पर खर्च करने के बाद, खुद को बनाए रखने के लिए शायद ही कुछ बचा पाती हो।

यह भी कहा कि,

''एक मां पर उसके बेटे की शिक्षा के पूरे खर्च का बोझ खर्च सिर्फ इसलिए नहीं ड़ाला जा सकता है क्योंकि उसने 18 वर्ष की आयु पूरी कर ली है, और पिता को सिर्फ इसलिए अपने बेटे की शिक्षा के खर्चों को पूरा करने की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि बेटा वयस्क हो गया है,जबकि वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र न हुआ हो और खुद को बनाए रखने में असमर्थ हो सकता है।''

तदनुसार, याचिका खारिज कर दी गई।

कोर्ट ने हाल ही में इसी तरह की टिप्पणियां की थी,जहां यह माना गया था कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत बेटे के बालिग होने पर उसे बनाए रखने के लिए पिता का दायित्व समाप्त नहीं होगा क्योंकि इससे उसकी शिक्षा सहित अन्य खर्चों का पूरा बोझ उसकी मां पर आ जाएगा।

केस शीर्षकः उर्वशी अग्रवाल व अन्य बनाम इंदरपॉल अग्रवाल

आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें



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