आरक्षण गर्व का विषय, इसका दुरुपयोग उचित नहीं, भले ही देर से पता चला होः मद्रास हाईकोर्ट
मद्रास हाईकोर्ट ने एक रिटायर्ड अपर डिवीजन क्लर्क द्वारा फर्जी कम्यूनिटी सर्टिफिकेट बनाने के कृत्य की आलोचना करते हुए कहा कि आरक्षण नीति गर्व का विषय है और इसके दुरुपयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता है, भले ही यह देर से पता चले।
कोर्ट ने कहा,
"याचिकाकर्ता का तर्क है कि चार दशक से अधिक समय बीत चुका है और इसलिए, विवादित आदेश टाइम बार्ड हो गया है, यह बहुत प्रभावशाली नहीं है। ऐसा इसलिए कि आरक्षण नीति हमारी विविधता के लिए गर्व का विषय है और किसी भी दुरुपयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता हो, भले ही उसका पता देर से चला हो।"
जस्टिस वीएम वेलुमणि और जस्टिस आर हेमलता की पीठ ने कहा कि कोई व्यक्ति एससी/एसटी कम्यूनिटी का है, यह निर्धारित करने के लिए मौजूदा दौर में सिस्टम है, जो पहले मौजूद नहीं था।
इस प्रकार, जब एक सतर्कता समिति ने स्पष्ट रूप से पर्याप्त प्रमाण के साथ यह स्थापित किया है कि संबंधित व्यक्ति एसटी कम्यूनिटी से संबंधित नहीं है, जैसा कि रोजगार के समय उसने दावा किया था, अदालत के पास निर्णय लेने या पूरी रिपोर्ट की जांच करने का कोई कारण नहीं है।
मौजूदा मामले में एक रिटायर्ड अपर डिवीजन क्लर्क ने आदि द्रविड़ आदिवासी कल्याण विभाग, तमिलनाडु सरकार की तमिलनाडु स्टेट लेवल स्क्रूटनी कमेटी-III के आदेश के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिस पर कोर्ट सुनवाई कर रही थी।
कमेटी ने याचिकाकर्ता के कम्यूनिटी प्रमाण पत्र को रद्द कर दिया था। उस प्रमाणपत्र में उसे अनुसूचित जनजाति समुदाय हिंदू कोंडा रेड्डी से संबंधित माना गया था।
उपरोक्त प्रमाण पत्र के आधार पर याचिकाकर्ता को कोटा के तहत वन आनुवंशिकी एवं वृक्ष प्रजनन संस्थान में नियुक्त किया गया था। उन्होंने 2021 में सेवानिवृत्ति प्राप्त की और उन्हें अस्थायी पेंशन का भुगतान किया जा रहा था।
2014 में संस्थान के निदेशक ने उनके कम्यूनिटी प्रमाण पत्र को जांच समिति को भेज दिया, जिसे बदले में सतर्कता सेल को भेज दिया गया। सतर्कता सेल ने पूछताछ की और निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता अनुसूचित जनजाति समुदाय से संबंधित नहीं था। उनका सामुदायिक प्रमाणपत्र बाद में रद्द कर दिया गया था।
याचिकाकर्ता ने रद्दीकरण के खिलाफ कहा कि आदेश में किसी वैध कारण का खुलासा नहीं किया गया है और कार्यवाही की कोई कानूनी पवित्रता नहीं थी।
यह प्रस्तुत किया गया कि कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के दिशानिर्देशों के अनुसार अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र का सत्यापन केवल 1995 के बाद के रोजगार के लिए किया जाना था जबकि उनकी नियुक्ति 1980 में हुई थी। 40 साल की सेवा और याचिकाकर्ता के पूर्ववृत्त को देखे बिना दिया गया आदेश मनमाना और अस्थिर था।
हालांकि अदालत ने कहा कि सतर्कता अधिकारी की रिपोर्ट के अलावा, स्क्रूटनी कमेटी ने मानवविज्ञानी की रिपोर्ट पर भी भरोसा किया था, जो सतर्कता रिपोर्ट के अनुरूप थी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि याचिकाकर्ता कोंडा रेड्डी समुदाय के थे, जबकि उनके भाई और बेटी रेड्डी समुदाय (गंजम) के थे। ये विसंगतियां याचिकाकर्ता के खिलाफ गईं और अदालत ने सतर्कता रिपोर्ट में बल पाया। इस प्रकार, अदालत ने याचिकाकर्ता की याचिका खारिज कर दी और समिति के निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
केस टाइटल: आर बालासुंदरम बनाम तमिलनाडु स्टेट लेवल स्क्रूटनी कमेटी-III और अन्य