सहायक सामग्री के बिना लिखित शिकायतों पर लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार का अपराध दर्ज करना विनाशकारी: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दर्ज एक मामले में आरोप पत्र और उसके बाद की कार्यवाही को रद्द कर दिया।
कोर्ट ने कहा कि जांच एजेंसी ने आधी-अधूरी सामग्री के आधार पर मुकदमा चलाया और उसी आधार पर मुकदमे को आगे बढ़ाने की अनुमति देना निरर्थकता होगी, जिसका नतीजा यह होगा कि दरअसल आरोपी को बरी कर दिया जाएगा।
जस्टिस शील नागू और जस्टिस पुरुषेंद्र कुमार कौरव की खंडपीठ सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर एक आवेदन पर विचार कर रही थी, जिसमें पीसी एक्ट की धारा 7 के तहत अपराध के लिए आवेदक के खिलाफ आरोप पत्र और परिणामी कार्यवाही को रद्द करने के लिए अदालत के निर्देश की मांग की गई थी।
अदालत के समक्ष सवाल यह था कि क्या आरोप पत्र को रद्द किया जा सकता है जब जांच में जुटाए गए सबूत इस प्रकार थे-
-शिकायतकर्ता की लिखित शिकायत;
-शिकायतकर्ता और आवेदक के बीच रिकॉर्ड की गई बातचीत, जिसे एफएसएल ने बताया कि आवेदक की सैंपल आवाज से मेल खाने के लिए पर्याप्त स्पष्ट नहीं है;
-शैडो विटनेस का बयान, जिसने केवल शिकायतकर्ता और आवेदक को कार में बैठे देखा, लेकिन उनके बीच बातचीत नहीं सुनी।
आवेदक ने तर्क दिया कि यदि जांच में अभियोजन की ओर से जुटाए गए उपरोक्त उपलब्ध साक्ष्य को उसकी फेस वैल्यू पर स्वीकार किया जाता है तो यह पीसी एक्ट की धारा 7 के तहत दंडनीय अपराध का कारण नहीं बन सकता, जैसा कि आरोप लगाया गया है।
यह प्रस्तुत किया गया कि कुछ अन्य निर्विवाद तथ्य थे, जो घटना की स्पष्ट असंभाव्यता और मूलभूत शिकायत के दुर्भावनापूर्ण होने का खुलासा करते थे।
अदालत ने कहा कि मौजूदा मामले में, तथ्यों से पता चला है कि शिकायतकर्ता की लिखित शिकायत और सीआरपीसी की धारा 161 के तहत शैडो विटनेस के बयान के अलावा, अभियोजन पक्ष ने कोई अन्य सबूत नहीं जुटाया है। कोर्ट ने आगे कहा कि उक्त शिकायत के बाद चार्जशीट दाखिल हो सकती थी, यदि डीवीआर में आवाज याचिकाकर्ता से जुटाए गए आवाज के नमूने से मेल खाती, लेकिन ऐसा नहीं था।
कोर्ट ने कहा कि जांच एजेंसी को लिखित शिकायत की पुष्टि करने के लिए स्पष्ट सबूत जुटाने चाहिए। यह कहा गया कि बिना किसी सबूत के केवल लिखित शिकायत के आधार पर मामलों का पंजीकरण का विनाशकारी परिणाम होगा।
न्यायालय ने दोहराया कि जांच एजेंसी सीआरपीसी चेप्टर XII के तहत अपने वैधानिक कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए बाध्य है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि धारा 173 (1) सीआरपीसी के तहत अंतिम रिपोर्ट, यदि तैयार की जाती है और अदालत के समक्ष दायर की जाती है तो ऐसे सहायक/सबूत साक्ष्य के साथ होती है जो कथित अपराध में आरोपी की संलिप्तता के गंभीर और मजबूत संदेह को जन्म देता है।
कोर्ट ने कहा कि एक और परीक्षण, चार्जशीट/अंतिम रिपोर्ट की वैधता की पुष्टि करने के लिए यह देखना होगा कि क्या उसमें स्पष्ट साक्ष्य/सामग्री को अनियंत्रित छोड़ दिया गया है, जो यह सुनिश्चित करेगा कि वही दोष सिद्ध हो सके।
मामले में रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने माना कि धारा 173 सीआरपीसी के तहत रिपोर्ट दर्ज करने और आगे संज्ञान लेने के लिए यह पर्याप्त नहीं था।
कोर्ट ने देखा-
जब जांच एजेंसी को एक अस्पष्ट फोरेंसिक रिपोर्ट मिली तब जांच एजेंसी के पास एक और जाल बिछाकर याचिकाकर्ता के बयान की रिकॉर्डिंग फिर से करना ही एकमात्र उपलब्ध विकल्प था। इसके बजाय, जांच एजेंसी ने लिखित शिकायत के रूप में अधपकी सामग्री और शैडो विटनेस- कांस्टेबल दिनेश दुबे के बयान के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया, जिन्होंने याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच की बातचीत को भी नहीं सुना था। जांच एजेंसी द्वारा इस तरह की कवायद कोर्ट की प्रक्रिया का पूरी तरह से दुरूपयोग करने के बराबर है। इस प्रकार दायर किया गया आरोप-पत्र न्यायालय के कीमती समय की बर्बादी है।
कोर्ट ने कहा, यह मामला उन दुर्लभतम मामलों में से एक है जहां जुटाए गए साक्ष्य की विश्वसनीयता, वास्तविकता या सत्यता में प्रवेश किए बिना, यह न्यायालय सीआरपीसी के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों को लागू करने के लिए मजबूर है।
उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, न्यायालय ने मामले में दायर आरोप-पत्र और उसके बाद की कार्यवाही को रद्द करने का निर्णय लिया।
केस शीर्षक: नरेंद्र मिश्रा बनाम मध्य प्रदेश राज्य के माध्यम से पीएस विशेष पुलिस स्थापना लोकायुक्त जबलपुर (एमपी)