(बलात्कार और नाबालिग की मौत)''साक्ष्य की पूरी बकेट अस्वीकार्य या अविश्वसनीय' : पटना हाईकोर्ट ने मौत की सजा रद्द करते हुए आरोपियों को बरी किया

Update: 2021-04-07 09:00 GMT

पटना हाईकोर्ट ने सोमवार को एक 13 साल की नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार और उसकी हत्या करने के मामले में तीन आरोपियों को निचली अदालत द्वारा दी गई मौत की सजा को रद्द करते हुए उनको बरी कर दिया है। हाईकोर्ट ने यह आदेश देते हुए कहा कि ''सबूतों की पूरी बकेट या तो अस्वीकार्य थी या अविश्वसनीय थी,जिस पर कोर्ट ने भरोसा किया था।''

न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार सिंह और न्यायमूर्ति अरविंद श्रीवास्तव की खंडपीठ ने कहा किः

''सभी सबूतों पर विचार करने पर, हम दोहराते हैं कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ उचित संदेह से परे परिस्थितियों की श्रृंखला में प्रत्येक लिंक को साबित करने में बुरी तरह से विफल रहा है। कोई संदेह नहीं है कि किया गया अपराध गंभीर था और अंतरआत्मा को झकझोर देता है परंतु यह अकेला अभियुक्तों-अपीलकर्ताओं के खिलाफ कानूनी सबूत के अभाव में उनको दोषी ठहराने का आधार नहीं हो सकता है।''

अपीलकर्ता प्रशांत कुमार मेहता, सोनू कुमार और रूपेश कुमार मंडल को सेशन कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 रिड विद 34, 376 (2) (जी) और 120 बी के तहत किए गए अपराध के लिए दोषी ठहराया था और 15 फरवरी 2018 के आदेश के तहत इन तीनों को मृत्युदंड की सजा दी थी।

निचली अदालत ने सीआरपीसी की धारा 366 के तहत मौत की सजा की पुष्टि के लिए हाईकोर्ट के पास संदर्भ भेजा था। हालांकि, अपीलकर्ताओं ने उक्त दोषी ठहराए जाने व सजा के आदेश को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने तब अपील के साथ-साथ संदर्भ पर भी सुनवाई की और उनको सभी आरोपों से बरी कर दिया।

इस मामले में 12 मई 2012 को एक जगदीश मंडल (शिकायतकर्ता) के मौखिक बयान के आधार पर एक एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें कहा गया था कि उसकी बेटी, जिसकी उम्र लगभग 13 वर्ष है, स्कूल जाने के बाद वापस घर नहीं लौटी।

बाद में पता चला कि एक लड़की का अज्ञात शव मक्का के खेत में पड़ा मिला है। खेत में पहुंचने पर, मृतक के पिता और अन्य रिश्तेदारों द्वारा शव की पहचान की गई।

धारा 164 के तहत बयान दर्ज करते समय 10 साल की उम्र के एक लड़के ने मजिस्ट्रेट को बताया था कि आरोपी प्रशांत कुमार मेहता, जो उन्हें पढ़ाते थे, ने मृतक पीड़िता से कहा था कि वह उससे शादी करेगा। उसने यह भी बताया था कि उक्त आरोपी आया और उसने अन्य दो आरोपी व्यक्तियों की उपस्थिति में पीड़िता का मुंह दबाकर उसे पकड़ लिया था। यह आरोप लगाया गया था कि यह सभी उसे खेतों में ले गए थे और पीड़िता मदद के लिए चार बार चिल्लाई थी।

यह भी खुलासा किया गया कि उसने उस घटना को देखा था जिसमें रूपेश ने चाकू से उसका गला काट दिया था, सोनू ने ब्लेड से पेट काट दिया और रूपेश ने बांस की छड़ी को गले में बांध दिया। इसके अलावा, यह भी आरोप लगाया गया कि आरोपी व्यक्तियों ने उसे धमकी दी थी कि अगर उसने घटना के बारे में किसी को बताया तो उस भी जान से मार दिया जाएगा।

हालांकि अपीलकर्ताओं का कहना था कि मुकदमे के दौरान सामने आने वाले सबूतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अभियोजन पक्ष के गवाहों ने बलात्कार या पीड़िता की हत्या नहीं देखी थी। इसके अलावा, यह प्रस्तुत किया गया था कि पूरा मामला संदेह और अनुमानों पर आधारित था।

अपीलकर्ताओं की तरफ से पेश वकील ने प्रस्तुत किया गया था कि अपराध की गंभीरता खुद पर हावी नहीं हो सकती है, जहां तक कानूनी प्रमाण का सवाल है तो केवल संदेह के आधार पर कोई सजा नहीं हो सकती है,भले ही संदेह कितना भी गहरा हो। चूंकि मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है, इसलिए भयावह और क्रूर हत्या के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा आरोप लगाया बहुत ही अस्पष्ट और कमजोर था।

न्यायालय इस मामले में एमिकस क्यूरी द्वारा दी गई दलीलों और अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों को देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि,

''निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया है। हमने देखा है कि घटना का कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है।

किसी ने भी अपीलकर्ताओं को मृतक की मौत से संबंधित कोई भी कार्य करते हुए नहीं देखा था। कोई भी गवाह यह बताने के लिए आगे नहीं आया है कि अपीलकर्ताओं को घटना वाले दिन मृतका के साथ देखा गया था या उनको घटना से पहले या घटना के बाद सत्यनारायण मंडल के मक्का के खेत के आसपास देखा गया था,जहां पर मृतका का शव मिला था।''

यह देखते हुए कि इस मामले में कोई चश्मदीद गवाह नहीं था, जो यह बताने के लिए आगे आए कि अपीलकर्ताओं को मृतक के साथ देखा गया था, अदालत ने कहा किः

''अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश के संबंध में लगाए गए आरोप की एकमात्र कड़ी यह है कि उन्होंने एक साथ अपराध किया है और उस आधार पर, अपराध करने की आपराधिक साजिश के बारे में ट्रायल कोर्ट ने गलत तरीके से यह अनुमान लगा लिया कि वह साबित हो गई है। उपरोक्त चर्चा हमें यह निष्कर्ष निकालते का रास्ता दिखाती है कि सबूतों की पूरी बकेट या तो अस्वीकार्य थी या अविश्वसनीय थी।''

इसे देखते हुए, अदालत ने मामले में शामिल किए गए पूरे सबूतों पर विचार करने के बाद दोहराया कि अभियोजन पक्ष अपीलकर्ताओं के खिलाफ उचित संदेह से परे परिस्थितियों की श्रृंखला में प्रत्येक लिंक को साबित करने में बुरी तरह से विफल रहा है।

अदालत ने मृत्युदंड की सजा को रद्द कर दिया और अपीलकर्ताओं को सभी आरोपों से बरी करते हुए कहा कि,

''इसमें कोई संदेह नहीं है कि किया गया अपराध गंभीर था और अंतरात्मा को झकझोर देता है परंतु यह अकेला अभियुक्तों-अपीलकर्ताओं के खिलाफ कानूनी सबूत के अभाव में उनको दोषी ठहराने का आधार नहीं हो सकता है। सभी उपरोक्त कारणों से मामले में दायर अपील को अनुमति दी जाती है। इस प्रकार 7 फरवरी 2018 को दोषी ठहराने और 15 फरवरी 2018 को सजा देने के संबंध में प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कम विशेष न्यायाधीश, पूर्णिया द्वारा दिए गए आदेशों को रद्द किया जा रहा है। अपीलकर्ता प्रशांत कुमार मेहता, सोनू कुमार और रूपेश कुमार मंडल को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों से बरी किया जा रहा है। अगर उनकी किसी अन्य मामले में आवश्यकता नहीं है तो उन्हें जेल से रिहा कर दिया जाए।''

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