राजस्थान हाईकोर्ट ने जयपुर मेयर के निलंबन का आदेश रद्द किया, कहा- जांच अधिकारी और प्रभारी अधिकारी एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते

Update: 2023-12-05 04:49 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में जयपुर नगर निगम (विरासत) के मेयर के खिलाफ राजस्थान नगर पालिका अधिनियम, 2009 की धारा 39(6) के तहत दिए गए निलंबन आदेश रद्द करते हुए कहा है कि 'कोई भी अपने मामले का न्यायाधीश नहीं हो सकता'।

जस्टिस अनूप कुमार ढांड की एकल पीठ ने मेयर की याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि प्रारंभिक जांच और जांच अधिकारी द्वारा प्रस्तुत जांच रिपोर्ट में अंतर्निहित खामियां हैं। यह पाया गया कि प्रारंभिक निलंबन आदेश को चुनौती देने के लिए याचिकाकर्ता द्वारा दायर पिछली रिट याचिका में जांच अधिकारी को स्वयं स्थानीय निकाय विभाग के प्रभारी अधिकारी (ओआईसी) के रूप में नियुक्त किया गया।

अदालत ने पाया कि प्रतिवादी अधिकारियों की यह कार्रवाई सुस्थापित कानूनी कहावत 'निमो डेबेट एसे जुडेक्स इन प्रोप्रिया सुआ कॉसा' (न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि स्पष्ट रूप से होते हुए दिखना भी चाहिए) का उल्लंघन है।

कोर्ट ने यह कहा,

“चूंकि जांच अधिकारी स्वयं मामले की प्रभारी अधिकारी हैं और पिछली रिट याचिका नंबर 12675/2023 में ओआईसी के रूप में पेश हुईं… इस न्यायालय का मानना है कि याचिकाकर्ता के साथ वास्तविक पूर्वाग्रह पैदा हुआ, क्योंकि जांच अधिकारी का ऐसा कृत्य पूर्वाग्रह से परे नहीं कहा जा सकता... जांच अधिकारी ने याचिकाकर्ता का उत्तर प्राप्त किए बिना ही 16.08.2023 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी और याचिकाकर्ता के आवेदन, जानकारी और दस्तावेजों की मांग को उसका उत्तर मान लिया…”

जयपुर की पीठ ने आगे बताया कि प्रतिकूल जांच रिपोर्ट "जल्दबाजी में तैयार की गई" और उसके बाद के निलंबन आदेश से याचिकाकर्ता के मन में उचित आशंका पैदा हो सकती है कि जांच अधिकारी ने ओआईसी और साथ ही जांच अधिकारी भी के रूप में दोहरी क्षमता में काम किया।

अदालत ने केनरा बैंक और अन्य बनाम देबासिस दास और अन्य (2003) का जिक्र करते हुए कहा कि किसी मनमानी कार्रवाई की सुरक्षा के लिए प्रक्रियात्मक निष्पक्षता एक अनिवार्य घटक है। अदालत ने कहा कि डीडीआर को पहले से ही जांच अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया, लेकिन प्रारंभिक निलंबन आदेश को चुनौती देने वाली रिट याचिका में प्रतिवादी प्राधिकारी के लिए प्रभारी अधिकारी के रूप में कार्य करने की जिम्मेदारी से हटा दिया जाना चाहिए।

अदालत ने यह भी कहा कि जांच अधिकारी को अर्ध-न्यायिक प्राधिकारी और स्वतंत्र निर्णायक के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि विभाग के प्रतिनिधि के रूप में, जैसा कि उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम सरोज कुमार सिन्हा, (2010) और यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम राम लखन शर्मा, (2018) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में निर्धारित है।

अदालत ने कहा,

“याचिकाकर्ता के खिलाफ जांच करने के लिए डीडीआर को 05.08.2023 को जांच अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया और 08.08.2023 और 10.08.2023 को उन्हें याचिकाकर्ता के खिलाफ पिछली रिट याचिका नंबर 12675/2023 में इस न्यायालय के समक्ष मामला लड़ने के लिए उत्तरदाताओं द्वारा ओआईसी के रूप में नियुक्त किया गया। जांच अधिकारी के रूप में उसी ओआईसी ने याचिकाकर्ता को 11.08.2023 को नोटिस जारी किया…”

अदालत ने आदेश में कहा कि जांच अधिकारी तथ्यात्मक मैट्रिक्स पर अपना विवेक लगाने में विफल रही।

अदालत ने आगे कहा,

अधिक दस्तावेजों की मांग करने वाली मेयर की अर्जी, जो उन्हें कारण बताओ नोटिस का व्यापक जवाब दाखिल करने में सक्षम बनाती, उसको निलंबित मेयर के कारण बताओ नोटिस के जवाब के रूप में माना गया।

अदालत ने बताया कि ओआईसी के रूप में जांच अधिकारी की भूमिका 'मामले में हस्तक्षेप' का संकेत देती है और पक्षपात की संभावना दर्शाती है।

अदालत ने कोक्कंडा बी. पूंडाचा और अन्य बनाम के.डी. गणपति एवं अन्य. 2011 का हवाला देते हुए कहा,

"यह सच है कि ऐसे कोई नियम नहीं हैं, जो जांच अधिकारी के कर्तव्य को विनियमित करते हैं लेकिन यह आरोप नहीं लगाता है कि प्राकृतिक न्याय के नियमों को 'गो-बाय' दिया जा सकता है। यह जांच अधिकारी का कर्तव्य है कि वह सभी भय और सम्मानजनक तरीकों से जांच कार्यवाही के हित को बनाए रखे…”

कोक्कंडा बी. पूंडाचा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि किसी वकील के पास यह विश्वास करने का कारण है कि वह किसी मामले में गवाह होगा तो वकील के लिए यह उचित है कि वह संक्षिप्त जानकारी स्वीकार न करे या उस मामले में पक्षों के लिए उपस्थित न हो।

अदालत ने प्रतिवादी अधिकारियों को नया जांच अधिकारी नियुक्त करने के बाद कानून के अनुसार नई जांच कार्यवाही शुरू करने का निर्देश देते हुए कहा,

"सवाल यह नहीं है कि क्या प्राधिकरण वास्तव में पक्षपाती है या आंशिक रूप से निर्णय लिया गया है, लेकिन जब परिस्थितियां ऐसी हों कि दूसरों के मन में यह उचित आशंका पैदा हो कि पूर्वाग्रह से निर्णय प्रभावित होने की संभावना है तो कार्यवाही को बरकरार नहीं रखा जा सकता है।"

संबंधित कैबिनेट मंत्री द्वारा स्थानीय स्व-निकाय विभाग के निदेशक द्वारा किए गए इस आशय के प्रस्ताव को मंजूरी देने के बाद मेयर को शुरू में राज्य सरकार द्वारा निलंबित कर दिया गया। अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू होने से पहले याचिकाकर्ता के घर पर भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) द्वारा छापा मारा गया।

कथित तौर पर छापे से पता चला कि उसके पति ने शिकायतकर्ता को लीज देने के लिए 2,00,000/- रुपये की मांग की, क्योंकि छापे के समय संबंधित लीज फ़ाइल उसके पति के पास थी। इसके अलावा एसीबी की छापेमारी में याचिकाकर्ता मेयर के घर से 40,00,000/- रुपये की रकम भी बरामद हुई। इसके बाद मेयर के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत मामला दर्ज किया गया।

केस टाइटल: मुनेश गुर्जर पत्नी सुशील गुर्जर बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य।

केस नंबर: एस.बी. सिविल रिट याचिका नंबर 15551/2023

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