राजस्थान हाईकोर्ट ने पत्नी की हत्या के मामले में गलत तरीके से दोषी ठहराए गए व्यक्ति को बरी किया, 25 लाख रुपए मुआवजा देने का निर्देश दिया

Update: 2023-10-03 14:09 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह अपनी पत्नी की हत्या के लिए एक व्यक्ति की सजा को रद्द कर दिया और राज्य सरकार को उसे 25 लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया। 'दुर्भावनापूर्ण अभियोजन' के कारण जेल में उसके जीवन के 12 साल बर्बाद हो गए, जिसके लिए राज्य को उसे 3 महीने के भीतर 25 लाख रुपये का भुगतान करने निर्देश दिया।

जस्टिस पंकज भंडारी और जस्टिस भुवन गोयल की पीठ ने कहा कि हालांकि आरोपी को रुपए के रूप में पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया जा सकता है, फिर भी समाज और आरोपी से परिचित व्यक्तियों को एक संदेश भेजा जाना आवश्यक है।

अदालत ने जोर देकर कहा कि आरोपी वास्तव में एक पीड़ित था, जिसने अपनी पत्नी को खो दिया, लेकिन उसे इस मामले में आरोपी बनाया गया और उसे 12 साल और 4 महीने से अधिक की अवधि के लिए हिरासत में रहना पड़ा, इस दौरान उसे हिरासत में रखा गया और वह अपने तीन नाबालिग बच्चों से दूर रहा।

अदालत ने बरी करने का यह फैसला सुनाया क्योंकि उसने पाया कि मृतक, आरोपी की पत्नी, ने वास्तव में आत्महत्या की थी और अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपी-अपीलकर्ता को मामले में झूठा फंसाया गया था।

संक्षेप में मामला

अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार, एक पुलिस अधिकारी द्वारा पीड़िता का परचाबयान (बाद में मृत्यु पूर्व बयान के रूप में माना गया) दर्ज किया गया था जिसमें उसने कहा था कि उसकी शादी लगभग 8 साल पहले आरोपी के साथ हुई थी और 13 मई, 2011 को उसके पति ने दहेज की मांग को लेकर उस पर केरोसिन छिड़ककर आग लगा दी, जिससे वह घायल हो गई।

उक्त बयान के आधार पर, पुलिस ने आरोपी पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 498-ए और 307 के तहत आरोपी-अपीलकर्ता, पीड़िता की सास और ननद के खिलाफ एफआईआर दर्ज की।

उपचार के दौरान पीड़िता की मृत्यु हो गई और जांच अधिकारी द्वारा आईपीसी की धारा 302 के तहत आरोप जोड़ा गया। पुलिस ने उचित जांच के बाद आरोपी-अपीलकर्ता के खिलाफ केवल धारा 498-ए, 307 और 302 आईपीसी के तहत आरोप पत्र दायर किया।

ट्रायल कोर्ट ने दोनों पक्षों की अंतिम दलीलें सुनने के बाद आरोपी-अपीलकर्ता को दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। जिससे व्यथित होकर, उन्होंने इस न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

मुख्य रूप से आरोपी के वकील द्वारा यह तर्क दिया गया कि घटना के समय, आरोपी स्नान कर रहा था और जब उसने अपनी पत्नी की चीख सुनी, तो वह मौके पर भाग कर आया और उसके हाथों में उसकी पत्नी के बाल आ गए, जब उसने मृतक पर पानी डालने की कोशिश की।

आगे यह तर्क दिया गया कि पीडब्लू-8 (डॉक्टर) ने अपनी जिरह में स्वीकार किया था कि यदि कोई व्यक्ति जल गया है और कोई उस व्यक्ति पर पानी डालकर उसे बचाने की कोशिश करता है, तो आग की लपटों से झुलसन हो सकती है।

यह भी तर्क दिया गया कि निचली अदालत के समक्ष परीक्षण किए गए सभी गवाहों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मृतक ने आत्महत्या की थी। अंत में यह प्रस्तुत किया गया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी-अपीलकर्ता को केवल पीडब्लू -6, एक बाल गवाह के बयान और परचबयान के आधार पर दोषी ठहराने में त्रुटि की थी।

हाईकोर्ट की टिप्पणियां

शुरुआत में अदालत ने बाल गवाह (मृतक और आरोपी का बेटा) की गवाही को ध्यान में रखते हुए कहा कि घटना के समय वह छत पर सो रहा था और उसने खुद इस घटना को नहीं देखा था।

कोर्ट ने आगे कहा कि जब उसने तेज आवाजें सुनीं, तो वह छत से नीचे आया और देखा कि उसके पिता नहा रहे थे और जब वह घटनास्थल पर पहुंचा तो उसकी मां पर पहले ही पानी डाला जा चुका था और वह कपड़े से ढकी हुई थी।

इस पृष्ठभूमि में अदालत ने कहा कि इस गवाह को कथित घटना का चश्मदीद गवाह नहीं माना जा सकता है और इसलिए, ट्रायल कोर्ट ने उसे चश्मदीद गवाह मानकर स्पष्ट रूप से गलती की है।

इसके अलावा, परचबयान की विश्वसनीयता के संबंध में न्यायालय ने कहा कि न तो इसे किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया था और न ही इसका कोई स्वतंत्र गवाह था। अदालत ने कहा कि पर्चबयान पर मृतक के अंगूठे का निशान है, जिसका मतलब है कि उसकी हथेलियां जली नहीं थीं।

कोर्ट ने यह भी पाया कि जिस डॉक्टर ने फिटनेस सर्टिफिकेट दिया था, उसे कोर्ट के सामने पेश नहीं किया गया और डॉक्टर द्वारा सर्टिफिकेट देने के 5 मिनट के भीतर 95% जले हुए घायल का पर्चाबयान दर्ज कर लिया गया।

अदालत ने आगे टिप्पणी की क्योंकि उसने कथित परचबयान संदिग्ध पाया,

“ ...यह अजीब और समझ से परे है कि परचबयान को रिकॉर्ड करने के बाद और जब एदल प्रसाद, एसआई (पीडब्लू-24) को यह पता चला कि घायल की मृत्यु हो गई है तो उन्होंने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से संपर्क किया ताकि मृत्युपूर्व बयान दर्ज करने के लिए एक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जा सके। इस प्रकार, पूरी कार्यवाही केवल उसे झूठा फंसाने के लिए आरोपी के खिलाफ शुरू की गई।”

महत्वपूर्ण बात यह है कि कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर यह मृतक पर जबरदस्ती मिट्टी का तेल डालकर आग लगाने का मामला होता तो मृतक मदद के लिए शोर मचाती, लेकिन यह अभियोजन पक्ष का मामला नहीं था।

इसे देखते हुए कोर्ट ने इसे आत्महत्या का मामला पाते हुए राज्य सरकार को गलत तरीके से मुकदमा चलाने और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित उसकी स्वतंत्रता को कम करने के लिए आरोपी को 25 लाख रुपये बतौर मुआवजा देने का निर्देश दिया।

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