अभियोजन को आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध साबित करने के लिए धारा 107 की आवश्यकताओं को संतुष्ट करना चाहिए: गुजरात हाईकोर्ट
गुजरात हाईकोर्ट ने एक फैसले में समझाया कि धारा 306 के तहत अपराध साबित करने के लिए अभियोजन को पहले धारा 107 के अवयवों को संतुष्ट करना होगा। जस्टिस संदीप एन भट्ट ने उक्त टिप्पणियों के साथ आक्षेपित फैसले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया और बरी करने के आदेश को रद्द कर दिया। फैसले में बेंच ने आईपीसी की धारा 306 और 107 के तहत 'उकसाने' (abetment) और 'भड़काने' (Instigation) की शर्तों पर विचार किया।
पृष्ठभूमि
अभियोजन का मामला था यह था कि प्रतिवादी-आरोपी ने पैसे का भुगतान न करने पर पीड़िता को जातिगत गालियां देकर और पीटकर, उसे आत्महत्या के लिए उकसाया था।
इसके बाद, शिकायतकर्ता ने पीड़ित राजूभाई को पंखे से लटका हुआ पाया गया। शिकायतकर्ता ने आईपीसी की धारा 306, 323, 504, 506 (2) और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 ('एससी/एसटी अधिनियम') की धारा 3(1)(आर), 3(1)(एस) और 3(2)(5) के तहत बगसरा पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज की।
अभियोजन पक्ष ने 20 गवाहों से पूछताछ किया और दस्तावेजी सबूत पेश किया। यह दावा किया गया कि आरोपी व्यक्तियों ने पीड़ित को मारा-पीटा और उसके परिचित को मारने की धमकी दी, जिससे पीड़ित ने आत्महत्या की।
अभियोजन पक्ष ने चिकित्सा अधिकारी की उस रिपोर्ट पर भी भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि पीड़ित की मौत दम घुटने से हुई, जो प्राकृतिक मौत नहीं थी। इसलिए ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को बरी कर संदेह का लाभ देने में त्रुटि की है।
फैसला
पीठ ने पाया कि शिकायतकर्ता की शिकायत विश्वसनीय नहीं है क्योंकि ऐसी कोई सामग्री नहीं पेश की गई थी, जो स्पष्ट रूप से आरोपी को फंसाती हो। इसके अलावा, गवाह हरेशभाई खितोलिया, जिन्हें कथित तौर पर आरोपी से जान से मारने की धमकी मिली थी, उन्होंने अपील में यह बयान पेश नहीं किया। उन्होंने यह पुष्टि भी नहीं की कि आरोपियों ने पीड़ित को 500 रुपये के लिए परेशान किया था या पीटा था।
आगे की जांच पर, बेंच ने बताया कि डॉ प्रकाश सावलिया के बयान में पीड़ित के शरीर पर कोई बाहरी चोट या लात या पहला वार स्थापित नहीं किया गया, इसलिए, हमले की सत्यता संदिग्ध थी। पीड़िता के भाई को भी कथित शारीरिक शोषण के बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं थी।
कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध साबित करने के लिए, अभियोजन पक्ष को पहले धारा 107 के तहत सामग्री को संतुष्ट करना होगा, जो कि भड़काने से संबंधित है। संजू @ संजय सिंह सेंगर बनाम मध्य प्रदेश राज्य [2002 5 एससीसी 371] जैसे कई फैसलों में 'इन्स्टिगेट' शब्द पर विस्तार से विचार किया गया है, जहां पीड़ित को मौखिक रूप से गाली दी गई थी और कहा गया था कि 'जाओ और मरो'।
"यह मानते हुए कि मृतक ने गालीगलौज को गंभीरता से लिया था, उसके पास सोच और विचार करने के लिए पर्याप्त समय था और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि गालीगलौज, जिसका उपयोग अपीलकर्ता ने 25.07.1998 को किया था, उसने मृतक को आत्महत्या करने के लिए उकसाया। 27.07.1998 को मृतक द्वारा की गई आत्महत्या, 25.07.1998 को अपीलकर्ता द्वारा दी गई गालीगलौज के निकट नहीं है।"
इसी प्रकार एसएस चीमा बनाम विजय कुमार महाजन में कहा गया,
"उकसाने (abetment) में किसी व्यक्ति को भड़काने (Instigate) या किसी व्यक्ति को इरादतन किसी काम को करने के लिए कहने में एक मानसिक प्रक्रिया शामिल होती है। अभियुक्त की ओर से आत्महत्या करने के लिए उकसाने या सहायता करने के लिए सकारात्मक कार्य के बिना, दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती।"
बेंच ने राजीव थापर बनाम मदन लाल कपूर का भी उल्लेख किया , जहां सीआरपीसी की धारा 482 के तहत कार्यवाही को रद्द करने के लिए एक चार-चरणीय दिशानिर्देश प्रतिपादित किया गया था-
-अभियुक्त ने जिस सामग्री पर भरोसा किया है, क्या वह सही, उचित और निर्विवाद है?
-अभियुक्त ने जिस सामग्री पर भरोसा किया है, क्या उसके खिलाफ लगे आरोपों में निहित दावों को खारिज कर देगी यानी, शिकायत में निहित तथ्यात्मक दावों को खारिज करने और ओवररूल करने के लिए पर्याप्त है?
-अभियुक्त ने जिस सामग्री पर भरोसा किया है, अभियोजन/शिकायतकर्ता ने उसका खंडन नहीं किया है; और/या सामग्री ऐसी है कि अभियोजन/शिकायतकर्ता, उसका उचित रूप से खंडन नहीं कर सकते हैं?
-क्या मुकदमे को आगे बढ़ाने से अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा और क्या इससे न्याय का लक्ष्य पूरा नहीं होगा?
इन उदाहरणों और मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता की कहानी पर अदालत को भरोसा नहीं हो पा रहा है और सबूतों की दोबारा जांच के बाद भी अभियोजन आईपीसी की धारा 306, 323, 504 और 506 (2) या एससी/एसटी एक्ट के प्रावधानों के तहत के किसी भी तत्व को प्रदान करने में बुरी तरह विफल रहा है।
कोर्ट ने रमेश बाबूलाल दोशी बनाम गुजरात राज्य (1996) 9 SCC 225) को यह पुष्टि करने के लिए संदर्भित किया कि अपीलीय न्यायालय दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में उलट कर अपने स्वयं के दृष्टिकोण को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है और यह आपराधिक न्यायशास्त्र का एक प्रमुख सिद्धांत है।
मोहन @ श्रीनिवास @ सीना @ टेलर सीना बनाम कर्नाटक राज्य , [2021 (15) स्केल पृष्ठ 184] में सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया था, "जब ट्रायल कोर्ट आरोपी को बरी करके अपना फैसला सुनाता है, तो बेगुनाही की धारणा अपीलीय अदालत के समक्ष ताकत इकट्ठा करती है। परिणामस्वरूप, अभियोजन पर अधिक बोझ हो जाता है क्योंकि निर्दोषता का दोहरा अनुमान होता है।"
तदनुसार, बेंच ने अपील को खारिज कर दिया।
केस शीर्षक: गुजरात राज्य बनाम गौतम भाई देवकुभाई वाला
केस नंबर: आर/सीआर.एमए/20079/2021
सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (गुजरात) 9