'POCSO कोर्ट के जजों को तमिलनाडु स्टेट ज्यूडिशियल एकेडमी से ट्रेनिंग लेनी चाहिए': मद्रास हाईकोर्ट ने कहा, ट्रायल कोर्ट ने पॉक्सो एक्ट को त्रुटिपूर्ण तरीके से लागू किया
मद्रास हाईकोर्ट ने 7 जुलाई के अपने हालिया फैसले में कहा है कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (पॉक्सो एक्ट) के तहत मामलों से निपटने वाली विशेष अदालतों की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीशों को अनिवार्य प्रशिक्षण लेना होगा और ऐसे संवेदनशील मामलों का न्यायिक निर्णय कैसे किया जाए,इस पर उन्हें संवेदीकरण बनाना होगा।
न्यायमूर्ति पी वेलमुरुगन ने यह टिप्पणी उस समय की,जब अदालत के संज्ञान में लाया गया कि सत्र न्यायालय अपराध की तारीख यानी घटना के समय पीड़िता की 8 साल की उम्र पर विचार करने में विफल रहा है और पाॅक्सो एक्ट के प्रावधानों के विपरीत आरोपी को कम कठोर सजा दी गई है।
पाॅक्सो एक्ट के प्रावधानों के अनुसार, जब कोई बच्चा 12 वर्ष से कम उम्र का होता है और यौन हमले के अधीन है, तो न्यायालयों को अधिनियम की धारा 9 (एम) को लागू करना चाहिए, जिसमें गंभीर यौन हमले को निर्धारित किया गया है क्योंकि ऐसे अपराध को अधिक जघन्य माना जाता है। इस प्रकार ऐसे मामलों में न्यूनतम 5 साल की सजा का प्रावधान किया गया है। जबकि अगर बच्चा 12 साल या उससे अधिक उम्र का है, तो अधिनियम की धारा 7 (यौन हमला) लागू होती है जिसके लिए न्यूनतम सजा 3 साल है।
तत्काल मामले में सत्र न्यायालय ने अधिनियम की धारा 9 (एम) को लागू करने के बजाय पॉक्सो एक्ट की धारा 7 और 8 को गलत तरीके से लागू किया था क्योंकि पीड़िता की उम्र 12 वर्ष से कम थी।
तद्नुसार न्यायालय ने निम्नलिखित प्रासंगिक टिप्पणी की,
''यहां यह उल्लेख करना उचित है कि ट्रायल जज पीड़ित लड़की की उम्र पर विचार करने में विफल रहे हैं और पाॅक्सो एक्ट के प्रासंगिक प्रावधानों को नहीं समझ पाए हैं। कई मामलों में, इस न्यायालय ने देखा है कि विशेष न्यायाधीश जो पाॅक्सो एक्ट के तहत मामलों पर विचार करते हैं, पॉक्सो एक्ट के दायरे और उद्देश्य को ठीक से नहीं समझ पाते हैं। किसी भी सत्र न्यायाधीश को विशेष न्यायालय में तैनात करने से पहले, जो पॉक्सो एक्ट के तहत विचाराधीन मामलों से निपटता है, उन्हें तमिलनाडु राज्य न्यायिक अकादमी के माध्यम से आवश्यक रूप से संवेदनशील बना जाए और प्रशिक्षण दिया जाए।''
रजिस्ट्रार जनरल और राज्य न्यायिक अकादमी के निदेशक को राज्य न्यायिक अकादमी के संरक्षक-इन-चीफ और बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के रूप में माई लॉर्ड माननीय मुख्य न्यायाधीश से आवश्यक अनुमोदन प्राप्त करने के बाद इसके लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।
पृष्ठभूमिः
इस मामले में आरोपी ने 8 साल की बच्ची का यौन शोषण किया था जो उसकी पड़ोसी थी। बच्ची का पहली बार 26 जनवरी 2014 को यौन शोषण किया गया था, जब आरोपी ने उसे उसके घर के सामने खेलते हुए देखा था और उसके बाद वह उसे अपने घर में ले गया और उसका यौन शोषण किया।
अगले दिन आरोपी ने बच्ची का यौन शोषण करने के इरादे से दोबारा उसे अपने घर बुलाया था। हालांकि, जब बच्ची ने मना किया तो आरोपी ने उसे घटना के बारे में किसी और को बताने के लिए धमकी देना शुरू कर दिया। इसके अगले दिन यानी 28 जनवरी 2014 को फिर से आरोपी ने कथित तौर पर बच्ची का पीछा किया और यह देखने के बाद बच्ची की मां ने उससे पूछताछ की। जिसके बाद बच्ची के आपबीती अपनी मां को सुनाई और उसकी मां ने 29 जनवरी 2014 को पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी।
तदनुसार आरोपी के खिलाफ पाॅक्सो एक्ट की धारा 7 और 8 और भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (i) (आपराधिक धमकी के लिए सजा) के तहत आरोप तय किए गए थे। नतीजतन सत्र न्यायालय ने आरोपी को दोषी ठहराया और उसे पॉक्सो एक्ट के तहत अपराधों के लिए तीन साल की अवधि के कठोर कारावास की सजा सुनाई और आईपीसी के तहत अपराध के लिए आरोपी को एक वर्ष की अवधि के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। सत्र न्यायालय के आदेश से व्यथित होकर तत्काल अपील दायर की गई थी।
आरोपी के वकील ने तर्क दिया था कि प्राथमिकी दर्ज करने में अत्यधिक देरी हुई थी और जांच ठीक से नहीं की गई थी जो अभियोजन के मामले के लिए घातक है। यह भी दलील दी गई थी कि आरोपी और पीड़िता के पिता के बीच रंजिश थी जिसके कारण आरोपी को झूठा फंसाया गया है। आरोपी ने आगे तर्क दिया था कि पीड़िता के बयानों की पुष्टि नहीं की गई थी और उसका मेडिकल परीक्षण नहीं कराया गया था जो यौन हमले का निर्धारण करने के लिए आवश्यक है।
अवलोकनः
हाईकोर्ट ने अभियुक्त की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष ने अपने मामले को संदेह से परे साबित कर दिया है। अदालत ने आगे कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने में कोई अत्यधिक देरी नहीं हुई और तत्काल मामले में एक चिकित्सा जांच की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि पीड़िता को पेनिट्रेटिव यौन हमले का शिकार नहीं बनाया गया था।
अदालत ने कहा, ''अभियोजन पक्ष की ओर से की गई चूक पीड़ित लड़की के सबूतों पर अविश्वास करने का आधार नहीं होगी। पीड़ित लड़की ने अदालत के समक्ष गवाह के रूप में बयान दिया है और उसने उक्त घटना के बारे में स्पष्ट रूप से बताया था।''
किसी भी पुष्टकारक साक्ष्य की आवश्यकता को नकारते हुए, न्यायालय ने कहा, ''इस प्रकृति के मामलों में, कोई पुष्टि आवश्यक नहीं है, क्योंकि विवेकपूर्ण व्यक्ति वयस्क सदस्यों की उपस्थिति में इस प्रकार का अपराध नहीं करेगा और स्वतंत्र चश्मदीद गवाहों की उपस्थिति ज्यादातर असंभव है।''
इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि पीड़िता की गवाही ठोस और विश्वसनीय थी और इस तरह के मामलों में यदि पीड़ित लड़की के सबूत भरोसेमंद है तो किसी पुष्टि की आवश्यकता नहीं है।
तद्नुसार अदालत ने आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन नाबालिग पीड़िता के हितों की रक्षा के लिए सत्र न्यायालय द्वारा लगाई गई सजा में संशोधन किया।
कोर्ट ने आदेश दिया कि,
''ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को पाॅक्सो एक्ट की धारा 8 के तहत दंडनीय धारा 7 के तहत अपराध के लिए तीन साल के कठोर कारावास और आईपीसी की धारा 506 (i) के तहत अपराध के लिए दोषी करार देते हुए एक साल के कठोर कारावास की सजा देने का निर्देश दिया है। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने सजा को समवर्ती (साथ-साथ)रूप से चलाने का आदेश दिया है, जिसे रद्द किया जाता है। इसमें संशोधन किया जाता है,जिसके तहत कारावास की दोनों सजाएं लगातार चलनी हैं, जो न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेंगी।''
केस का शीर्षकः वेंकटचलम बनाम पुलिस निरीक्षक
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