यदि पीड़ित और आरोपी वास्तविक समझौता करते हैं, सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे हैं तो POCSO मामला रद्द किया जा सकता है: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के मामलों को रद्द किया जा सकता है, यदि पीड़ित और आरोपी वास्तविक समझौते पर पहुंचते हैं और एक खुशहाल वैवाहिक जीवन जी रहे हैं।
न्यायालय के एकल न्यायाधीश के एक संदर्भ का उत्तर देते हुए कि क्या हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करके POCSO मामले में समझौते के आधार पर एफआईआर रद्द कर सकता है।
जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस सत्येन वैद्य की खंडपीठ ने कहा,
“..वर्तमान प्रकार के एक मामले में जहां पीड़िता ने पहले आरोप लगाया कि उसके साथ यौन उत्पीड़न किया गया, लेकिन बाद में उसने विवाद सुलझा लिया और आरोपी से शादी कर ली है और शांतिपूर्ण जीवन जी रही है। निश्चित रूप से ऐसे मामलों में अदालत संतुष्ट होने के बाद अभियोजन जारी रखने की अनुमति नहीं देगी, जिसके परिणामस्वरूप केवल उनके खुशहाल पारिवारिक जीवन में अशांति होगी।
यह मामला POCSO Act के तहत यौन उत्पीड़न के आरोपी एक व्यक्ति पर केंद्रित है। हालांकि, पीड़ित अब उसकी पत्नी है और उसके परिवार ने सुलह कर ली और विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया। एक साथ नया जीवन जीने की उनकी प्रतिबद्धता उनके विवाह में परिणित हुई।
एकल न्यायाधीश ने समझौते के आधार पर एफआईआर रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता के साथ पीड़ित बच्ची और उसके माता-पिता का समझौता महत्वहीन है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि POCSO Act के तहत गंभीर अपराधों में अपराध राज्य के खिलाफ है और निजी पक्ष मामले से समझौता नहीं कर सकते हैं।
न्यायालय और देश के अन्य हाईकोर्ट की समन्वय पीठों द्वारा परस्पर विरोधी निर्णयों को देखते हुए एकल न्यायाधीश ने मामले को चीफ जस्टिस के पास भेज दिया ताकि मामले को एक बड़ी पीठ द्वारा निपटाया जा सके।
अपने व्यापक विश्लेषण में डिवीजन बेंच ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 और सीआरपीसी की धारा 320 के तहत अंतर्निहित शक्तियों की प्रकृति और दायरे का पता लगाया, जो अपराधों के शमन से संबंधित है। अदालत ने कई महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला दिया, जिनमें बीएस जोशी बनाम हरियाणा राज्य और नरिंदर सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य गैर-शमनीय अपराधों में भी आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए हाईकोर्ट के अधिकार की स्थापना शामिल हैं।
अदालत ने कहा,
“हाईकोर्ट की पर्याप्त न्याय करने की शक्ति को सीमित करने वाली कोई सख्त रेखा नहीं हो सकती है। सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अंतर्निहित शक्तियों का प्रतिबंधात्मक निर्माण कठोर या विशिष्ट न्याय का कारण बन सकता है, जो दिए गए तथ्यों और परिस्थितियों में गंभीर अन्याय का कारण बन सकता है... सीआरपीसी की धारा 320(9) के आकार में नहीं होगा या ऐसी कोई अन्य कटौती सीआरपीसी की धारा 482 के तहत पूर्ण न्याय करने के लिए हाईकोर्ट की शक्ति को कम कर सकती है।"
महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से जुड़े मामलों में पक्षों के बीच समझौते से निपटने में हाईकोर्ट का मार्गदर्शन करने के लिए सिद्धांतों को निर्धारित करते हुए पीठ ने बच्चे के सर्वोत्तम हित पर विचार करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
पीठ ने कहा,
“..यौन उत्पीड़न पीड़िता के माता-पिता या अभिभावकों द्वारा समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए दायर की गई याचिकाओं से निपटते समय अदालत को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या आरोप प्रथम दृष्टया अपराध की सामग्री का गठन करते हैं, क्या समझौता नाबालिग पीड़िता के सर्वोत्तम हित में संभव है और क्या आरोपी के खिलाफ कार्यवाही जारी रखने और उन कार्यवाहियों में नाबालिग पीड़िता की भागीदारी से उसके मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।”
यह देखते हुए कि अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शादी सजा से बचने के लिए एक आड़ नहीं है और समझौते के लिए पीड़िता द्वारा दी गई सहमति स्वैच्छिक है, पीठ ने कहा,
“आपराधिक मुकदमा केवल इसलिए चलाया गया, क्योंकि पीड़िता बच्ची थी, अन्यथा वह आरोपी से प्यार करती थी। इसमें भी कोई विवाद नहीं है कि आरोपी पीड़ित बच्ची के साथ विवाह करने का इच्छुक था और उसने वास्तव में विवाह कर लिया है... पीड़िता ने विवाह कर लिया और शांतिपूर्ण जीवन जी रही हैं। इसलिए ऐसे मामले में अभियोजन जारी रखने की अनुमति दी गई है तो इससे उनके खुशहाल पारिवारिक जीवन में अशांति ही पैदा होगी और ऐसी परिस्थितियों में न्याय की समाप्ति यह मांग करेगी कि पक्षों को समझौता करने की अनुमति दी जाए।''
इन टिप्पणियों के आलोक में खंडपीठ ने माना कि इस मुद्दे पर एकल न्यायाधीश द्वारा लिया गया दृष्टिकोण सही नहीं है और इसलिए इसे रद्द कर दिया गया। परिणामस्वरूप याचिका स्वीकार कर ली गई और POCSO Act की एफआईआर रद्द कर दी गई।
केस टाइटल: रणजीत कुमार बनाम एच.पी. राज्य एवं अन्य।
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