सीआरपीसी की धारा 64 को झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती, लैंगिक रूप से विभेदकारी बताया
एनयूएसआरएल, रांची के दो छात्रों ने सीआरपीसी की धारा 64 को लैंगिक दृष्टि से विभेदकारी बताते हुए इसे झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी है।
धारा 64 में कहा गया है,
"अगर जिस व्यक्ति को सम्मन भेजा गया है, उसका पता नहीं चल रहा है तो इसकी एक प्रति उस व्यक्ति के लिए परिवार के किसी वयस्क पुरुष को दी जा सकता है जो उसके साथ रह रहा है और जिस व्यक्ति को सम्मन की प्रति सौंपी गई है, अगर सम्मन ले जाने वाला अधिकारी ज़रूरी समझता है, तो सम्मन की दूसरी प्रति पर उस व्यक्ति का पावती पर हस्ताक्षर ले सकता है।"
याचिकाकर्ता छात्र राजीव पांडेय और रविकान्त शर्मा में कहा है कि यह प्रावधान महिलाओं के लिए विभेदकारी है, क्योंकि उन्हें किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ जारी सम्मन को लेने की अनुमति इसमें नहीं दी गई है।
याचिका में कहा गया है कि
"उपरोक्त धारा को ग़ौर से पढ़ने से पता चलता है कि सम्मन सिर्फ़ परिवार का कोई वयस्क पुरुष ही प्राप्त कर सकता है और परिवार की महिलाओं को सम्मन प्राप्त करने से अलग रखा गया है। यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के ख़िलाफ़ है जो समानता का अधिकार देता है। यह प्रावधान अनुच्छेद 19 का भी उल्लंघन करता है।"
इन छात्रों ने अपनी याचिका में कहा है कि विधि आयोग की 37वें रिपोर्ट में सामाजिक स्थिति में आ रहे परिवर्तनों पर ग़ौर किया है और इसी के अनुरूप सीआरपीसी, 1898 की धारा 70 को संशोधित किया है। इसमें कहा गया है कि नौकर परिवार का सदस्य नहीं होता तो इस प्रावधान को बनाए रखने की ज़रूरत नहीं है। परिणामस्वरूप, इसमें एक स्पष्टीकरण दिया गया कि नौकर परिवार का सदस्य नहीं होता।
इसी पृष्ठभूमि में याचिका में अदालत से आग्रह किया गया है कि लैंगिक आधार पर विभेद करनेवाले इस प्रावधान को समाप्त कर दिया जाए।
याचिकाकर्ताओं ने इसकी तुलना सीपीसी के आदेश V नियम 15 से की है जिसमें कहा गया है कि "…प्रतिवादी के परिवार का कोई वयस्क सदस्य।"
"दिवानी क़ानून के तहत पुरुष और स्त्री कोई भी सम्मान प्राप्त कर सकता है जबकि धारा 64 इसकी तुलना में महिलाओं के लिए भेदभावकारी है क्योंकि इसमें कहा गया है कि सम्मन परिवार का कोई वयस्क पुरुष ही प्राप्त कर सकता है।
याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा है कि इस तरह महिलाओं को सम्मन प्राप्त करने का अधिकार नहीं होने से भी आपराधिक मुक़दमों के फ़ैसले में विलंब होता है।
याचिकाकर्ताओं ने कहा,
"…काम करने वाले पुरुष अमूमन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक घर पर नहीं मिलते हैं। इस दौरान महिलाएं अक्सर घर पर ही होती हैं। अगर इस स्थिति में हम महिलाओं को सम्मन प्राप्त करने के योग्य नहीं मानते हैं तो सम्मन की तामील समय पर नहीं हो पाती है और न्याय में देरी का यह एक कारण बनता है।"
इस तरह, याचिकाकर्ताओं ने अदालत से आग्रह किया है कि इस धारा से "पुरुष" शब्द को हटा दिया जाए और महिलाओं को भी सम्मन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाए।
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