दुर्भावना पूर्ण अभियोग के खिलाफ मुकदमे में वादी को 'दूसरी अग्निपरीक्षा' से गुजरने की जरूरत नहीं; जिम्मेदारी हस्तांतरित होने पर प्रतिवादी को इसका निर्वहन करना चाहिए : मद्रास हाईकोर्ट

Update: 2021-05-26 04:58 GMT

मद्रास हाईकोर्ट ने दुर्भावना से ग्रसित अभियोग के खिलाफ मुकदमे में 'सबूत के बोझ' (बर्डेन ऑफ प्रूफ) को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि वादी को 'दूसरी अग्निपरीक्षा' से गुजरने की जरूरत नहीं होती है और यदि इसका दायित्व बचाव पक्ष को हस्तांतरित किया जाता है तो उसे इसका निर्वहन करना चाहिए।

न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन की एकल बेंच ने कहा,

"वह (वादी) केवल बयान दे सकता है कि उसके खिलाफ लगाया गया आरोप झूठा था। दुर्भावना से ओत-प्रोत अभियोग से संबंधित मुकदमे में वादी को यह प्रदर्शित करने की जरूरत नहीं है कि उसके खिलाफ जिस आरोप के तहत मुकदमा चलाया गया, उस मामले में वह निर्दोष है।"

न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रारम्भ में बर्डेन ऑफ प्रूफ वादी पर होता है। कथित झूठे मामले में महज बरी होना ही काफी नहीं है और उसे यह साबित करना होता है कि अभियोग बिना किसी तार्किक एवं संभावित कारण के दायर किया गया था तथा यह भी साबित करना होता है कि इसे दुर्भावनाग्रस्त इरादे से शुरू किया गया था और उसे इसका नुकसान उठाना पडा था।

हालांकि वादी को उसके उलट कुछ साबित करने के लिए नहीं बुलाया जा सकता।

कोर्ट ने कहा,

"तार्किक और संभावित कारण न होने की स्थिति में वादी यदि विटनेस बॉक्स में आकर यह कहता है कि उसके खिलाफ शिकायत झूठी थी और प्रतिवादी के दुर्भावना की बात का साक्ष्य पेश किये जाने के बाद (बर्डेन ऑफ प्रूफ की) जिम्मेदारी प्रतिवादी के ऊपर आ जायेगी।"

'सतदेव प्रसाद बनाम राम नारायण, एआईआर 1969 पट 102' मामले में दिये गये उस फैसले पर भरोसा जताया गया था जिसमें कहा गया था कि जब वादी के खिलाफ किसी घटना के संदर्भ में अभियोग था, जिसमें प्रतिवादी ने उसे घटना को अंजाम देते हुए देखने का दावा किया था और मेरिट के आधार पर बरी किये जाने के आदेश के साथ मुकदमे का अंत होता है तो ऐसा समझा जाता है कि अभियोग का कोई तार्किक एवं संभावित कारण नहीं होता है।

मौजूदा मामले में प्रतिवादी ने अपनी दुकान में घुसकर छूरा लहराने और धमकी देने के आरोपों के तहत वादी के खिलाफ आपराधिक कानून के तहत मुकदमा चलाया था।

मुकदमे में बरी होने के बाद, वादी ने दुर्भावना से ग्रसित होकर अभियोग लगाने के खिलाफ एक मुकदमा शुरू किया था, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था, लेकिन प्रथम अपीलीय अदालत ने उसे स्वीकार कर लिया था। इसके बाद प्रतिवादी-अपीलकर्ता की ओर से मौजूदा अपील दायर की गयी थी।

मूल वादी (यहां प्रतिवादी) ने आरोप लगाया था कि उसे प्रतिवादी (यहां अपीलकर्ता) द्वारा झूठे आपराधिक मामले में दो कारणों से दुश्मनी की वजह से फंसाया गया था :

1. वादी ने स्थानीय मस्जिद की व्यवस्था पर सवाल खड़े किये थे और प्रतिवादी मस्जिद के प्रमुख का रिश्तेदार (ब्रदर इन लॉ) था।

2. प्रतिवादी ने वादी के पुत्र से संबंधित वैवाहिक विवाद के मद्देनजर वादी से सम्पर्क किया था, लेकिन वादी ने मध्यस्थता के प्रयासों को विफल कर दिया था।

प्रतिवादी (यहां अपीलकर्ता) ने दलील दी थी कि यह साबित करना वादी का कानूनी दायित्व है कि उसके खिलाफ अभियोग दुर्भावना से ग्रसित था तथा प्रतिवादियों को शिकायत करने का कोई तार्किक या संभावित कारण नहीं है।

वादी (यहां प्रतिवादी) ने दूसरी ओर यह दलील दी थी कि प्रतिवादियों के अनुसार भी दोनों पक्षों के बीच रिश्ते तल्ख थे। उनके अनुसार, दुर्भावना के तत्व स्पष्ट हैं और इसलिए प्रथम अपीलीय अदालत ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटकर सही किया।

कोर्ट के समक्ष दोनों ओर से पेश किये गये साक्ष्यों के पढ़ने के बाद एकल पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी को शिकायत करने का कोई कारण ही नहीं था, तार्किक और संभावित कारण की तो बात ही छोड़ दें।

इसने कहा कि आरोपों के अनुसार, प्रतिवादी को धमकाने के लिए वादी उसकी दुकान में घूसा था। कोर्ट ने कहा, "चूंकि घटना स्थल एक दुकान है, तो निश्चित तौर पर इसने सभी का ध्यान आकर्षित किया होगा तथा घटना के तुरंत बाद स्थानीय पुलिस के समक्ष शिकायत भी दर्ज करायी गयी होगी। लेकिन, पहले प्रतिवादी ने अगले दिन जिला पुलिस अधीक्षक का दरवाजा खटखटाया था और पहले प्रतिवादी की ओर से दी गयी लिखित शिकायत डाक के जरिये भेजा गया था।"

इतना ही नहीं, प्रतिवादी ने दावा किया था कि घटना के गवाह अन्य प्रतिवादी भी थे, जो प्रतिवादी के साथ मस्जिद जाने के लिए दुकान पहुंचे थे। "लेकिन केवल छठे प्रतिवादी से ही प्रतिवादी गवाह संख्या दो (डी. डब्ल्यू. - 2) के तौर पर जिरह की गयी थी, लेकिन डी. डब्ल्यू – 2 ने विवादित घटना के बारे में एक शब्द नहीं बोला था। उसने वादी के पुत्र और पुत्रवधु के बीच निकाह संबंधी विवाद के कारण दोनों पक्षों के बीच रिश्तों में कड़वाहट की बात बतायी थी। दूसरे शब्दों में, आपराधिक आरोपों के समर्थन में प्रथम प्रतिवादी की गवाही के अतिरिक्त, अन्य बयानों का आरोपों से कोई तालमेल नहीं था।"

एकल पीठ ने कहा कि यह भी विश्वास करना असंभव सा लगता है कि रात्रि के नौ बजे अन्य प्रतिवादी प्रथम प्रतिवादी की दुकान पर उसे नमाज पढ़ने साथ ले जाने के उद्देश्य से आये थे तथा इस घटना के अनायास गवाह बन गये।

कोर्ट ने कहा,

"जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वादी केवल यही कह सकता है कि न ही वह, न उसका बेटा प्रथम प्रतिवादी की दुकान पर गया था या उसे धमकाया था। वह केवल यही बयान दे सकता है कि उसके खिलाफ आरोप झूठे हैं। दुर्भावनापूर्ण अभियोग से संबंधित मुकदमे में वादी को यह प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं है कि वह उन आरोपों के मामले में निर्दोष था, जिनके लिए उसके खिलाफ मुकदमा चलाया गया था।"

कोर्ट ने आगे कहा,

"यह स्पष्ट है कि मस्जिद प्रबंधन वादी को कड़ी सबक सिखाना चाहता था। किसी भी प्रकार से शिकायत का कोई कारण नहीं था, केवल तार्किक और संभावित कारण को छोड़ दें। उपरोक्त वर्णित दोनों कारण झूठी शिकायत के रूप में परिवर्तित हुए। प्रथम अपीलीय अदालत ने सही ही पाया कि वादी ने दुर्भावना पूर्ण अभियोग के सभी कारकों को साबित कर दिया था।"

हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजना के लिए मुकदमा उसी व्यक्ति के खिलाफ चलेगा जिसके उकसाने पर मामला शुरू किया गया था, न कि गवाहों के खिलाफ।

आदेश में कहा गया,

"सवाल है कि अभियोगकर्ता कौन है। मौजूदा मामले में, केवल प्रथम प्रतिवादी ने ही वादी और उसके पुत्र के खिलाफ शिकायत की थी। अन्य प्रतिवादियों ने निस्संदेह अभियोगकर्ता का समर्थन किया था, लेकिन वे केवल गवाह थे। डी 1 से लेकर डी 6 तक ने मुकदमा नहीं चलाया था। किसी भी कल्पना की सीमा तक जाने के बावजूद, यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने वादी के खिलाफ अभियोग चलाया था। यदि वादी के अनुसार, उन लोगों ने शपथ लेकर झूठ बोलने (परजूरी) का अपराध किया है तो उनके खिलाफ कार्रवाई अलग तरीके से होगी। मैं मानता हूं कि वादी के पास प्रतिवादी संख्या दो से छह तक के खिलाफ कार्रवाई का कोई कारण नहीं था।"

इस प्रकार प्रथम प्रतिवादी की हैसियत में यह अपील खारिज की जाती है।

केस का शीर्षक : एम. अबुबकर एवं अन्य बनाम अब्दुल करीम

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