पीएफआई प्रतिबंध : कर्नाटक हाईकोर्ट ने पीएफआई के खिलाफ यूएपीए को केंद्र द्वारा तत्काल प्रभाव से अधिसूचित करने के खिलाफ याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा
कर्नाटक हाईकोर्ट ने सोमवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना को चुनौती देने वाली उस याचिका पर अपना आदेश सुरक्षित रख लिया, जिसमें यूएपीए की धारा 3(1) के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और उसकी अनुषंगी इकाइयों या संगठनों अथवा मोर्चों को पांच वर्ष की अवधि के लिए 'तत्काल प्रभाव' से 'गैरकानूनी संगठन' घोषित किया गया था।
जस्टिस एम नागप्रसन्ना की सिंगल बेंच ने नासिर पाशा द्वारा अपनी पत्नी के माध्यम से दायर याचिका पर अपना आदेश सुरक्षित रखा। पाशा फिलहाल न्यायिक हिरासत में है। बेंच कल दोपहर 2.30 बजे फैसला सुनाएगी।
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जयकुमार एस. पाटिल ने दलील दी कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट, 1967 की धारा (3) की उप-धारा 3 के प्रावधान के अनुसार, सक्षम प्राधिकारी के लिए यह अनिवार्य है कि वह प्रतिबंध को तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए अलग और खास कारण दर्ज करे। उनकी दलील है कि आक्षेपित आदेश एक समग्र आदेश है और एक्ट की धारा 3 की उप-धारा 3 के अनुरूप कोई अलग कारण या आदेश पारित नहीं किया गया है।
याचिका में कहा गया है कि वर्ष 2007-08 में, पीएफआई को कर्नाटक सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत किया गया था और यह समाज के दलित वर्ग के सशक्तीकरण के लिए काम कर रहा था।
कोर्ट ने आगे कहा कि,
"भारत सरकार ने यूएपीए की धारा 3 (1) के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करके आक्षेपित अधिसूचना (दिनांक 28-09-2022) पारित की है। यह अधिसूचना यूएपीए ट्रिब्यूनल की पुष्टि के अधीन है, इस प्रकार इस कोर्ट के समक्ष इस पर सवाल नहीं उठाया गया है।"
इसमें कहा गया है कि याचिकाकर्ता अधिसूचना के बाद के हिस्से से व्यथित है जिसमें यूएपीए की धारा 3(3) के प्रावधान के तहत प्रदत्त शक्ति का इस्तेमाल करके अधिसूचना को तत्काल प्रभाव से लाया गया है।"
याचिका में कहा गया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(सी) के तहत अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार पर अंकुश लगाने के लिए भारत सरकार ने अपराध की विविध घटनाओं के आधार पर अपनी संप्रभु शक्ति का मनमाने ढंग से प्रयोग किया है।
इसमें कहा गया है,
"कई राज्यों में मौजूद संगठन का अनुसरण अनेक व्यक्ति करते हैं और लाभान्वित होते रहे हैं, लेकिन संगठन से इस जुड़ाव को अकारण तत्काल प्रभाव से गैरकानूनी घोषित किया जाना मनमाना और अवैध है।"
यह दावा किया जाता है,
"इस तरह की घोषणा को तत्काल प्रभाव देने के कई अंतर्निहित प्रभाव हैं, जो कानूनी प्राधिकरण को यूएपीए की धारा 10, 11 और 13 के तहत सदस्यता की आड़ में किसी भी व्यक्ति को ट्रिब्यूनल की पुष्टि से पहले ही झूठे तरीके से फंसाने की बेलगाम शक्ति देता है। 'तत्काल प्रभाव' न केवल ट्रिब्यूनल के समक्ष बचाव के अधिकार को कम करता है, बल्कि प्रत्येक सदस्य, अनुयायी, सहानुभूति रखने वाले के खिलाफ भी संभावित आपराधिक कार्रवाई के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। जब प्रभाव इतना गंभीर और हतोत्साहित करने वाला हो तो कारण समान रूप से ठोस और मजबूत होने चाहिए।
इस मामले में 'मोहम्मद जफ़र बनाम भारत सरकार (1994 (2) SCC 267)' के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया गया था, जिसमें कोर्ट ने घोषणा के 'तत्काल प्रभाव' को निरस्त कर दिया था।
याचिका में तत्काल प्रभाव से अधिसूचना की घोषणा को रद्द करने की प्रार्थना की गई थी।
केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह कहते हुए याचिका का विरोध किया कि प्रतिबंध की घोषणा के लिए अधिसूचना में आवश्यक कारण दिए गए हैं और इसमें कुछ भी अवैध नहीं है।
केस टाइटल: नासिर पाशा बनाम भारत सरकार
केस नंबर: रिट याचिका 21440/2022
पेशी: याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जयकुमार एस. पाटिल और अधिवक्ता रोनाल्ड डी एसए
प्रतिवादी की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एमबी नरगुंड और डिप्टी सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया एच शांति भूषण