अभियोजन की लंबितता निवारक निरोध के आदेश के लिए कोई बाधा नहीं: जेएंडके और एल हाईकोर्ट
जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि अभियोजन की लंबितता निवारक निरोध (Preventive Detention) के आदेश के लिए कोई बाधा नहीं है और निवारक निरोध का आदेश भी अभियोजन के लिए बाधा नहीं है। किसी व्यक्ति का डिस्चार्ज होना या बरी होना (Acquittal) हिरासतकर्ता प्राधिकारी को निरोध आदेश जारी करने से रोक नहीं सकता।
जस्टिस मोक्ष खजूरिया काज़मी की पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। याचिकाकर्ता ने संभागीय आयुक्त, कश्मीर द्वारा जारी किए गए हिरासत के अपने आदेश को चुनौती दी थी। आदेश के तहत उसे प्रिवेंशन ऑफ इल्लिसिट ट्रैफिक इन नार कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1988 की धारा तीन के तहत डिटेंशन में रखा गया था और सेंट्रल जेल कोटे भलवाल, जम्मू में बंद किया गया था।
याचिकाकर्ता ने कहा कि उसे एनडीपीएस एक्ट के तहत मामलों में झूठा फंसाया गया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि दोनों एफआईआर में उन्हें सक्षम अदालत ने पहले ही जमानत दे दी थी, हालांकि लगभग ढाई साल के अंतराल के बाद, उन्हें फिर से आक्षेपित निरोध आदेश के आधार पर हिरासत में लिया गया था। निरोध आदेश एसएसपी कुपवाड़ा द्वारा डिटेनिंग अथॉरिटी को आपूर्ति की गई सामग्री/डोजियर के आधार पर जारी किया गया था।
याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि ऐसी कोई सामग्री, सबूत या दस्तावेज नहीं है कि बंदी को हिरासत में लेने के लिए हिरासतकर्ता प्राधिकारी ने कैसे और किस सामग्री के आधार पर हिरासत में लेने के आदेश को पारित करने के लिए संतुष्टि प्राप्त की थी।
रिकॉर्ड के अवलोकन से पता चला कि पुलिस ने नाका चेकिंग के दौरान चरस जैसा पदार्थ बरामद किया था और बंदी को 400 ग्राम चरस के साथ पकड़ा गया था, जिसके लिए एनडीपीएस एक्ट की धारा 8/20 के तहत क्रमशः वर्ष 2012 और 2019 की एफआईआर संख्या 49 और 56 दर्ज की गई।
रिकॉर्ड ने आगे खुलासा किया कि उपरोक्त आपराधिक मामलों में बंदी की गिरफ्तारी के बावजूद, उसने वह कार्य करना जारी रखा और गोपनीय और विश्वसनीय स्रोतों ने बार-बार पुष्टि की कि बंदी ने नशीली दवाओं को एकमात्र पेशा बना लिया।
मामले पर फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा कि किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए आवश्यक संतुष्टि के लिए एक पूर्वाग्रहपूर्ण कार्य को भी पर्याप्त माना जा सकता है और निवारक निरोध की शक्ति उचित प्रत्याशा में प्रयोग की जाने वाली एहतियाती शक्ति है। यह किसी अपराध से संबंधित हो भी सकता है और नहीं भी और यह समानांतर कार्यवाही नहीं है। यह अभियोजन के साथ ओवरलैप नहीं करता है, भले ही यह कुछ तथ्यों पर निर्भर करता है, जिसके लिए अभियोजन शुरू किया जा सकता है या शुरू किया जा सकता था।
बेंच ने कहा,
"अभियोजन से पहले या उसके दौरान निवारक निरोध का आदेश दिया जा सकता है। निवारक निरोध का आदेश अभियोजन के साथ या उसके बिना और प्रत्याशा में या डिस्चार्ज या यहां तक कि बरी होने के बाद भी किया जा सकता है। अभियोजन की लंबितता निवारक निरोध के आदेश के लिए कोई रोक नहीं है। और निवारक निरोध का आदेश भी अभियोजन के लिए एक बाधा नहीं है। किसी व्यक्ति को डिस्चार्ज होना या बरी होना हिरासतकर्ता प्राधिकारी को निरोध आदेश जारी करने से रोक नहीं सकता।"
कानून की उक्त स्थिति के समर्थन में बेंच ने हरधन साहा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, (1975) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर भरोसा किया।
पीठ ने आगे कहा कि किसी व्यक्ति का डिटेंशन उसके कृत्यों की संख्या से नहीं बल्कि कृत्य के प्रभाव से निर्धारित होता है। मौजूदा मामले में बंदी के कृत्य मादक पदार्थों की तस्करी से संबंधित हैं, जिसने लोगों स्वास्थ्य और कल्याण के अलावा, युवाओं, विशेष रूप से बेरोजगार युवाओं को इस तरह के नापाक कृत्यों में लिप्त होने का गंभीर खतरा पैदा कर दिया है, और इस प्रकार याचिका खारिज करने योग्य है।
केस टाइटल: मंजूर अहमद लोन बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और अन्य
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 138