सरकारी शिक्षकों को मुस्लिम विवाह रजिस्ट्रार के रूप में कार्य करने से रोकने की चुनौती खारिज

Update: 2025-09-15 05:21 GMT

उड़ीसा हाईकोर्ट ने सरकारी/सहायता प्राप्त स्कूलों के कार्यरत शिक्षकों को मुस्लिम विवाह और तलाक रजिस्ट्रार के रूप में कार्य करने हेतु जारी किए गए लाइसेंस रद्द करने/निरस्त करने के राज्य सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली कई रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया।

जस्टिस दीक्षित कृष्ण श्रीपाद ऐसे शिक्षकों द्वारा शिक्षण के प्रति "पूर्ण प्रतिबद्धता" दिखाने की व्यवहार्यता को लेकर आशंकित थे, इसलिए उन्होंने कहा -

"उन्हें [रजिस्ट्रार] को कई रजिस्टर/पुस्तकों का रखरखाव और अपडेट करना होता है। उन्हें पक्षकारों और गवाहों से पूछताछ करनी होती है। कई बार उन्हें अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए अन्य स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है। नियम 49 के अनुसार, यदि न्यायालय उन्हें बुलाता है तो उन्हें रजिस्टर/अभिलेखों के साथ व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना होगा। ऐसी स्थिति में वे सरकारी स्कूलों में शिक्षक के रूप में अपने कर्तव्य का पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ निर्वहन कैसे कर पाएंगे, यह एक बड़ा प्रश्न है।"

संक्षेप में मामला

याचिकाकर्ता सरकारी/सहायता प्राप्त स्कूल शिक्षक भी हैं। वह उड़ीसा मुस्लिम विवाह एवं तलाक रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1949 और उड़ीसा मुस्लिम विवाह एवं तलाक रजिस्ट्रेशन नियम, 1976 ('1976 नियम') के तहत 'लाइसेंसधारी' के रूप में अपने वैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है। बाद में सरकार ने इस आधार पर उनके लाइसेंस रद्द करने का निर्णय लिया कि वे पहले से ही लोक सेवक होने के नाते रजिस्ट्रार के रूप में काम नहीं कर सकते, जिसके लिए विशिष्ट प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होती है।

याचिकाकर्ताओं ने इस निर्णय को इस आधार पर चुनौती दी कि अधिनियम 1949 या ओडिशा सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1962 सहित किसी भी अन्य क़ानून में कोई निषेध नहीं है। इसलिए ऐसा अचानक लिया गया निर्णय उन्हें दिए गए अधिकारों के विरुद्ध है।

दावों की सत्यता का आकलन करने के लिए न्यायालय ने अधिनियम 1949 के प्रावधानों के साथ-साथ 1976 के नियमों का भी अवलोकन किया, जिन्हें अधिनियम 1949 की धारा 24 के अनुसार प्रख्यापित किया गया।

जस्टिस श्रीपाद ने रेखांकित किया कि अधिनियम की धारा 3 में "राज्य सरकार के लिए किसी भी व्यक्ति को लाइसेंस प्रदान करना विधिसम्मत होगा..." वाक्यांश का प्रयोग किया गया। इसलिए यह याचिकाकर्ताओं को लाइसेंस प्राप्त करने का कोई पूर्ण अधिकार नहीं देता है।

उन्होंने आगे कहा -

"इसलिए याचिकाकर्ताओं जैसे सेवारत सरकारी कर्मचारी अधिकार के रूप में लाइसेंस का दावा नहीं कर सकते। सरकार के पास पर्याप्त विवेकाधिकार है... याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित वकीलों का यह जोरदार तर्क कि उनके मुवक्किल बहुत लंबे समय से मुस्लिम विवाह/तलाक के रजिस्ट्रार के रूप में कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं, नवीनीकरण या विस्तार का कोई निहित अधिकार नहीं देता है। आखिरकार, इस प्रकार का लाइसेंस किसी भी पद में कोई हित नहीं पैदा करता। यह कमोबेश विशेषाधिकार का मामला है।"

इसके अलावा, अधिनियम की धारा 25 के अनुसार, प्रत्येक मुस्लिम रजिस्ट्रार लोक सेवक माना जाएगा और उन्हें कुछ "कठिन कर्तव्यों" का पालन करना अनिवार्य है। पीठ ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि उनके कार्यों का मुसलमानों के विवाह/तलाक की स्थिति पर दूरगामी साक्ष्य संबंधी प्रभाव पड़ता है। फिर महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अर्ध-न्यायिक शक्ति का भी प्रयोग करते हैं।

इसलिए अदालत इस बात को लेकर चिंतित है कि क्या याचिकाकर्ताओं के लिए मुस्लिम रजिस्ट्रार के रूप में उन्हें सौंपे गए विशाल कर्तव्यों के साथ-साथ शिक्षक के रूप में अपनी प्राथमिक भूमिका को भी पूरी प्रतिबद्धता के साथ निभाना संभव होगा।

अदालत ने कहा,

"शिक्षण एक महान पेशा है। सामान्य रूप से शिक्षक और विशेष रूप से प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक ही युवा मन में सभ्यतागत मूल्यों और संस्कृति का संचार करते हैं। इसलिए हमारे प्राचीन शास्त्रों में "गुरु साक्षात् परब्रह्म" का जाप किया गया, जो शिक्षक को ईश्वर के समान बताता है। इस प्रकार, सरकार के इस विवादित निर्णय को इसमें कुछ विवादास्पद कमियों के बावजूद, बदला नहीं जा सकता।"

अदालत ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि चूंकि OCA (CCA) नियम या अधिनियम 1949 या 1976 के नियम सरकारी शिक्षकों को मुस्लिम रजिस्ट्रार के रूप में कार्य करने से नहीं रोकते, इसलिए उन्हें इस पद पर कार्य करने से नहीं रोका जा सकता। इसके बजाय, न्यायालय ने सुझाव दिया कि मुस्लिम समुदाय के हज़ारों बेरोज़गार व्यक्तियों को उपरोक्त भूमिका निभाने के लिए लाइसेंस दिया जा सकता है।

अदालत ने आगे कहा,

ऐसे व्यक्तियों को मुस्लिम विवाह और तलाक रजिस्ट्रार के रूप में कार्य करने के लिए लाइसेंस देने को प्राथमिकता दी जा सकती है ताकि कर्तव्यों के निर्वहन पर उन्हें कुछ पैसे मिल सकें। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(बी) और (सी) में वर्णित वितरणात्मक न्याय के विचार के अनुरूप होगा।”

तदनुसार, रिट याचिकाओं का समूह खारिज कर दिया गया।

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