निर्भया केस के एक दशक बाद भी कुछ सुधार नहीं हुआः जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने बच्ची से बलात्कार के मामले में नाना को दोषी ठहराया
जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने अपनी एक वर्षीय नाती के साथ बलात्कार करने के आरोपी नाना की सजा को बरकरार रखा है। हाईकोर्ट ने इस मामले में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि जघन्य निर्भया मामले के एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बावजूद महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों को संबोधित करने की दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है।
जस्टिस संजय धर और जस्टिस राजेश सेखरी की पीठ ने कहा कि महिलाओं को जीवन, स्वतंत्रता, सम्मान और समानता का अधिकार है। साथ ही महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के मद्देनजर अदालतों से बलात्कार के मुकदमे की कार्यवाही में अधिक सतर्क रहने का आग्रह किया।
हाईकोर्ट ने कहा,‘‘ ‘निर्भया’ मामले के एक दशक से अधिक समय के बाद भी कुछ भी सुधार नहीं हुआ है। महिलाओं को भी जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है। उन्हें भी समान नागरिक के रूप में सम्मान और व्यवहार पाने का अधिकार है। उनके सम्मान और प्रतिष्ठा को छुआ या उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। महिलाएं जिनमें, कई व्यक्तित्व संयुक्त हैं और वे खेलने की चीजें नहीं हैं। हाल ही में, सामान्य रूप से महिलाओं के खिलाफ अपराध और विशेष रूप से बलात्कार में वृद्धि हो रही है। यह समाज पर एक कलंक है और यौन अपराधों के पीड़ितों की मानवीय गरिमा के उल्लंघन के प्रति समाज की उदासीनता के दृष्टिकोण का एक दुखद प्रतिबिंब है। इसलिए, बलात्कार के आरोप में किसी आरोपी पर मुकदमा चलाते समय अदालतें एक बड़ी जिम्मेदारी निभाती हैं।’’
यह मामला एक नाबालिग बच्ची के साथ उसके अपने नाना द्वारा किए गए क्रूर बलात्कार से संबंधित है। जिसे रणबीर दंड संहिता, 1989 की धारा 376 (2) (एफ) के तहत ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया था।
अपीलकर्ता ने अपने खिलाफ प्रस्तुत सबूतों पर सवाल उठाते हुए कई आधारों पर अपनी दोषसिद्धि का विरोध किया था। उनके वकील ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट सबूतों की उचित सराहना करने में विफल रहा है। उनके अनुसार यह सबूत विरोधाभासों और विसंगतियों से भरे हुए थे। उन्होंने आगे तर्क दिया कि कथित अपराध के पीछे मकसद के सबूत की कमी थी और अभियोजन पक्ष पेनिट्रेशन के किसी भी प्रयास को स्थापित करने में विफल रहा है। बचाव पक्ष ने यह भी बताया कि मुख्य गवाह पीड़िता के करीबी रिश्तेदार थे, जिससे वे पक्षपाती गवाह बन गए।
मामले पर फैसला सुनाते हुए पीठ ने प्रत्येक विवाद को व्यवस्थित रूप से संबोधित किया और दोषसिद्धि की पुष्टि की। अपराध की सच्चाई का निर्धारण करने में पीड़िता के बयान और चिकित्सा साक्ष्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए पीठ ने कहा कि,
‘‘पीडब्ल्यू-काजल की एकमात्र गवाही, जिसकी चिकित्सा विशेषज्ञ द्वारा विधिवत पुष्टि की गई है, अपीलकर्ता की सजा को बरकरार रखने के लिए पर्याप्त है।’’
यौन अपराधों के मामलों में चिकित्सा साक्ष्य की भूमिका पर विचार-विमर्श करते हुए अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि बलात्कार का निदान किसी चिकित्सा विशेषज्ञ द्वारा नहीं किया जा सकता है, वो केवल हालिया यौन गतिविधि को प्रमाणित कर सकता है। इस बात पर जोर दिया गया कि वीर्य के उत्सर्जन के साथ या उसके बिना पेनिट्रेशन का प्रयास भी बलात्कार का अपराध माना जाने के लिए पर्याप्त है। इस बात को पुष्ट करने के लिए मोदी के चिकित्सा न्यायशास्त्र और विष विज्ञान की टिप्पणियों का हवाला दिया गया।
पीठ ने रेखांकित किया कि,“बलात्कार पीड़िता का इलाज करने वाला एक चिकित्सा विशेषज्ञ केवल हाल की यौन गतिविधि के किसी भी सबूत के बारे में प्रमाणित कर सकता है। बलात्कार हुआ है या नहीं, इस पर राय देना उसका काम नहीं है। बलात्कार एक न्यायिक निर्णय है। चूंकि बलात्कार अपराध है, इसलिए यह निर्धारित करना केवल अदालत का काम है कि आईपीसी की धारा 375 के तहत बलात्कार का अपराध बनता है या नहीं? गुप्तांगों पर कोई चोट पहुंचाए बिना या वीर्य का कोई दाग छोड़े बिना भी बलात्कार का अपराध स्थापित किया जा सकता है।’’
मकसद के मुद्दे और कुछ गवाहों की गवाही करवाने में विफलता को संबोधित करते हुए पीठ ने फैसला सुनाया कि मकसद, हालांकि महत्वपूर्ण है, परंतु उस समय महत्व खो देता है जब अपराध के प्रत्यक्ष भरोसेमंद सबूत होते हैं। स्पष्ट मकसद की अनुपस्थिति ने इस मामले में अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर नहीं किया है।
इन विचारों के आधार पर पीठ को निचली अदालत द्वारा दिए गए दोषसिद्धि और सजा के फैसले में विकृति तो दूर, कोई अवैधता भी नहीं मिली।
इसलिए अपील को गुणहीन होने के कारण खारिज कर दिया गया।
केस टाइटल- बीआर (बदला हुआ नाम) बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य
साइटेशन- 2023 लाइव लॉ (जेकेएल)
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