आजीवन कारावास की सजा देते हुए ट्रायल कोर्ट के पास यह शक्ति नहीं है कि वह प्राकृतिक मौत होने तक या सजा में छूट न देने की बात कहते हुए सजा की अवधि भी निश्चित करे
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने एक बार फिर से इस बात की पुष्टि की है कि ट्रायल कोर्ट के पास यह आदेश देने की शक्ति नहीं है कि वह आजीवन कारावास की सजा को प्राकृतिक मौत होने तक चलने का आदेश दे सके या यह आदेश दे कि आरोपी को सजा में कोई छूट नहीं दी जाएगी।
न्यायमूर्ति एस मुरलीधर की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह फैसला दिया। पीठ ने कहा है कि ''वी श्रीहरन'' मामले में शीर्ष अदालत की संविधान पीठ द्वारा व्यक्त किए गए विचार के अनुसार यह शक्ति केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास ही है।
यह फैसला देने वाली पीठ में न्यायमूर्ति अवनीश झिंगन भी शामिल थे। पीठ ने कहा है कि इस अदालत के फैसले की काॅपी और वी श्रीहरन के फैसले की काॅपी न्यायिक अकादमी के माध्यम से सभी जजों को और पंजाब, हरियाणा व चंडीगढ़ के सभी जेल अधिकारियों को भेज दी जाए।
दो सदस्यीय खंडपीठ ने पैरोल न देने के उस आदेश को भी खारिज कर दिया है,जिसमें ट्रायल कोर्ट के फैसले सहित अन्य आधारों पर याचिकाकर्ता को पैरोल देने से इनकार कर दिया गया था। साथ ही इस मामले को वापिस भेजते हुए कहा है कि कानून के अनुसार नए सिरे से पैरोल की मांग पर विचार किया जाए। याचिकाकर्ता बाबा रामपाल का शिष्य थी और उसे भी बाबा रामपाल वाले मामले में ही दोषी ठहराया गया था।
डिवीजन बेंच ने निष्कर्ष निकाला है कि वी श्रीहरन मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के अलावा किसी अदालत के लिए यह ओपन नहीं है कि वह भारतीय दंड संहिता के तहत (मृत्यु दंड के विकल्प के रूप में)आजीवन कारावास की सजा सुनाते समय आगे की भी विशिष्ट अवधि को स्पष्ट करें या दोषी के जीवन के अंत तक जेल में रहने का निर्देश दे या यह निर्देश दे कि आरोपी को सजा में कोई छूट न दी जाए। यह शक्ति केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास निहित है। इसलिए ट्रायल कोर्ट तत्काल मामले में याचिकाकर्ता को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए यह नहीं कह सकती थी कि यह सजा आरोपी की प्राकृतिक मौत तक चलेगी या वह किसी भी छूट का हकदार नहीं होगी।
याचिकाकर्ता ने डिवीजनल कमिश्नर, हिसार के 5 जून 2020 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसने याचिकाकर्ता की अस्थायी रिहाई/ पैरोल दिए जाने की अर्जी को खारिज कर दिया था। इस अर्जी को खारिज करते हुए कहा गया था कि ट्रायल कोर्ट यानी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, हिसार की अदालत ने अपने 16 अक्टूबर 2018 के आदेश के तहत याचिकाकर्ता को उम्रकैद की सजा दी थी। साथ ही कहा था कि उसे कोई छूट दिए बिना यह सजा उसकी प्राकृतिक मौत होने तक चलेगी। इससे पहले अदालत ने याचिकाकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 302,343 व 120-बी के तहत दोषी करार दिया था।
पीठ ने हरियाणा गुड कंडक्ट प्रिजनर्स (टेम्परेरी रिलीज)एक्ट 1988 की धारा 3 (1) (डी)को हरियाणा गुड कंडक्ट प्रिजनर्स (टेम्परेरी रिलीज) रूल्स 2007 के नियम 4 और 8 (iii) के साथ पढ़ा और कहा कि सजा होने के बाद एक साल की कैद पूरी होने के अलावा फस्र्ट ऐन्यूअल गुड कंडक्ट रिमिशन (एजीसीआर) भी प्राप्त करना जरूरी है।
पीठ ने कहा कि ,''यह भी सही है कि तत्काल मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा याचिकाकर्ता को दी गई सजा 'बिना किसी छूट के आजीवन कारावास' की है। याचिकाकर्ता व उसके सह-दोषियों को ' उनकी स्वाभाविक मृत्यु तक आजीवन कारावास की सजा' सुनाई गई है। जिसका अर्थ है कि उसे अपने शेष जीवन में जेल में रहना होगा। याचिकाकर्ता की पैरोल की मांग को खारिज करने वाला डिवीजनल कमिश्नर ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश के तहत नियम 4 को लागू करने के लिए बाध्य था।''
पीठ ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा उसकी सजा के खिलाफ दायर आपराधिक अपील पर विचार करते समय यह सवाल जरूर उठेगा कि क्या ट्रायल कोर्ट इस तरह की सजा को पारित कर सकती है? याचिकाकर्ता की अपील इस समय अदालत के समक्ष लंबित है। हालांकि, पीठ इस तथ्य को भी जानती है कि याचिकाकर्ता व अन्य दोषियों की तरफ से दायर सभी अपील पर निकट भविष्य में सुनवाई होने की संभावना नहीं है। वहीं इसका मतलब यह होगा कि जब तक इस तरह के सवाल पर फैसला नहीं हो जाता है, तब तक अधिकारी याचिकाकर्ता को पैरोल पर रिहा करने के किसी भी आवेदन पर विचार नहीं कर पाएंगे।
पीठ ने कहा कि 'वी श्रीहरन मामले में' सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले में राइडर के साथ सजा देने के लिए ट्रायल कोर्ट की शक्ति के संबंध में कानूनी स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है। इसलिए ''इन परिस्थितियों में यह अनुचित होगा कि अब इस सवाल पर विचार न किया जाए और इसे बाद के लिए छोड़ दिया जाए यानि अपील पर सुनवाई के दौरान विचार करने के लिए। खासतौर पर तब जब यह देखा जा रहा है कि इस संबंध में कानूनी स्थिति स्पष्ट है।''
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि वी श्रीहरन मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के अलावा किसी अदालत के लिए यह ओपन नहीं है कि वह भारतीय दंड संहिता के तहत (मृत्यु दंड के विकल्प के रूप में)आजीवन कारावास की सजा सुनाते समय आगे की भी विशिष्ट अवधि को स्पष्ट करें या दोषी के जीवन के अंत तक जेल में रहने का निर्देश दे या यह निर्देश दे कि आरोपी को सजा में कोई छूट न दी जाए। यह शक्ति केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास निहित है।
पीठ ने साफ किया कि,'' इस प्रकार ट्रायल कोर्ट तत्काल मामले में याचिकाकर्ता को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए यह नहीं कह सकती थी कि यह सजा आरोपी की प्राकृतिक मौत तक चलेगी या वह किसी भी छूट का हकदार नहीं होगी।''
इस स्पष्ट कानूनी स्थिति को देखते हुए पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को उपरोक्त आधार पर पैरोल देने से इनकार करते हुए डिवीजनल कमिश्नर, हिसार द्वारा 5 जून 2020 को पारित आदेश कानूनी रूप से अस्थिर है। इसलिए उस आदेश को खारिज किया जा रहा है। याचिकाकर्ता की पैरोल की अर्जी को डिवीजनल कमिश्नर,हिसार के पास वापिस भेजा जा रहा है ताकि वह कानून के अनुसार नए सिरे से उस पर विचार कर सकें।