पीड़िता द्वारा कोई शारीरिक प्रतिरोध न करना, कृत्य के लिए सहमति देना नहीं : मद्रास हाईकोर्ट ने बलात्कार की सजा बरकरार रखी

Update: 2021-12-27 13:56 GMT

Madras High Court

मद्रास हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट (मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट) और निचली अपीलीय अदालत (सत्र न्यायाधीश) द्वारा दी गई बलात्कार की सजा बरकरार रखते हुए अभियुक्त की तरफ से दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी और कहा कि अभियुक्त के खिलाफ शारीरिक और हिंसक प्रतिरोध की कमी इस कृत्य को सहमतिपूर्ण नहीं बनाएगी।

अदालत ने कहा कि,

'' पीड़िता ने आरोपी का शारीरिक और हिंसक रूप से विरोध नहीं किया, यह तथ्य इस कृत्य को सहमतिपूर्ण नहीं बनाएगा ... किसी को पीड़िता की तकलीफ समझनी होगी और फिर पूरे प्रकरण को उसके दृष्टिकोण से देखना होगा। वह 17 साल की थी और बिल्कुल अकेली थी। हां, जब उसे उसका हाथ पकड़ कर घसीटा गया तो वह साथ चली। लेकिन, जब आरोपी ने उसे नीचे धकेल दिया और उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की तो वह चिल्लाना और विरोध करना चाहती थी, लेकिन आरोपी और उसका कृत्य उस पर हावी हो गए।''

अदालत के अनुसार, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)की धारा 375 निस्संदेह यह निर्धारित करती है कि यदि अभियुक्त का कृत्य पीड़िता की इच्छा के विरुद्ध और उसकी सहमति के विरुद्ध है, तो यह बलात्कार का अपराध होगा।

जस्टिस डी. भरत चक्रवर्ती की पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 90 में स्पष्ट है कि सहमति डर या गलत धारणा से पैदा नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114-ए का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा किः

''साक्ष्य अधिनियम की धारा 114-ए के अनुसार, बलात्कार के अपराध में सहमति के अभाव का अनुमान होता है यदि पीड़िता यह बताती है कि उसने सहमति नहीं दी थी। इस अनुमान का खंडन करने के लिए, आरोपी द्वारा सकारात्मक सबूत पेश किए जाने चाहिए। पीड़िता की ओर से केवल एक बहादुर और हिंसक प्रयास की अनुपस्थिति निश्चित रूप से सहमति के समान नहीं है।''

राव हरनारायण सिंह व अन्य बनाम राज्य के मामले में पंजाब एंड हरियाणा कोर्ट के 1957 के फैसले पर भरोसा करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि 'सबमिशन या आत्मसमर्पण' को 'सहमति' नहीं माना जाएगा। चूंकि रिकॉर्ड पर मौजूद मेडिकल साक्ष्य से पीड़िता के गुप्तांग पर आई चोट का पता चला है। अदालत ने आरोपी द्वारा उठाए गए इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि यौन कृत्य स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करने का परिणाम था।

इस मामले में पीड़िता के साथ 17 साल की उम्र में उस समय बलात्कार किया गया था, जब वह मवेशी चरा रही थी। आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध करने के दौरान, पीड़िता का भाई घटनास्थल पर पहुंच गया और उसने आरोपी का शारीरिक रूप से सामना करने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप आरोपी वहां से भाग गया। बाद में पीड़िता के भाई को अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में पेश किया गया।

निचली अपीलीय अदालत में, आरोपी के वकील ने तमीज़ुद्दीन उर्फ तम्मू बनाम दिल्ली राज्य (एन.सी.टी) (2009) मामले का हवाला दिया और यह स्थापित करने का प्रयास किया कि सजा तभी दी जा सकती है जब योनि स्वैब लिया गया हो। हालांकि, सत्र न्यायालय ने आरोपी के इस तर्क को खारिज कर दिया क्योंकि सवाल पीड़िता की सहमति का था और योनि स्वैब की प्रक्रिया के अभाव से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के साथ-साथ सत्र न्यायाधीश भी इस बात से आश्वस्त थे कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के साथ-साथ चिकित्सा और फोरेंसिक साक्ष्य अटूट रूप से बलात्कार के आरोपी के अपराध को दर्शाते हैं।

हाईकोर्ट में दायर याचिका में अभियुक्त ने कहा कि उसकी सजा को अनिवार्य सात साल से कम कर दिया जाए। आरोपी ने तर्क दिया कि अपराध 19 साल पहले हुआ था और पीड़िता अब जिंदा नहीं है। इसके अतिरिक्त, अभियुक्त का एक परिवार है और वह अब शराबी बन गया है। फिलहाल उसका सरकारी अस्पताल में इलाज चल रहा है।

कम सजा देने के बारे में अदालत ने कहा किः

''यह सवाल उठता है कि क्या अभियुक्त की स्थिति और समय के प्रवाह को न्यूनतम सजा से कम सजा देने के लिए एक विशेष परिस्थिति के रूप में माना जा सकता है? शिंभू व अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2013) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि बलात्कार के अपराध के संबंध में, समय का प्रवाह या आरोपी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति न्यूनतम सजा से कम सजा देने का 'विशेष कारण' नहीं हो सकती है।''

इसके अलावा, अदालत ने कहा कि हालांकि पीड़िता इस घटना में बच गई, फिर भी वह कम उम्र में ही मर गई।

अदालत ने कहा कि,

''उसके शरीर और दिमाग पर पड़े अपराध के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। अभियुक्त को कम उम्र में जेल भेजा गया, तब से वह शराबी बन गया है और अब 48 साल की उम्र में बहुत बीमार है। लेकिन कानून के लंबे हाथ उस तक पहुंचेंगे और उसे जेल में डाल देंगे। इस बीच उसने शादी कर ली है और बिना किसी गलती के उसकी पत्नी और बच्चों को सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ रहा है।''

शिंभू मामले पर भरोसा करते हुए, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि बलात्कार के अपराध में सजा का प्राथमिक उद्देश्य समाज को दिया जाने वाला एक निवारक संदेश है।

इसलिए हाईकोर्ट ने निचली अदालत और अपीलीय अदालत द्वारा पारित सजा की पुष्टि की,जिन्होंने अभियुक्त को 500 रुपये के जुर्माने के साथ 7 साल के कठोर कारावास की सजा दी है।

याचिकाकर्ता आरोपी की ओर से अधिवक्ता एस. वेदिअप्पन पेश हुए, जबकि सरकारी अधिवक्ता एल. भास्करन अभियोजन पक्ष की ओर से पेश हुए।

केस का शीर्षक- गोपी उर्फ सरवनन बनाम राज्य व अन्य

केस नंबर-सीआरएल.आर.सी.नंबर 708/2014

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