"कोई भी आरोपी सुधार में असमर्थ नहीं": इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धारा 304 भाग एक आईपीसी के तहत दी गई आजीवन कारावास की सजा को 10 वर्ष तक की सजा के रूप में संशोधित किया
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा, "...कोई भी आरोपी सुधार में असमर्थ नहीं है। इसलिए, उन्हें सामाजिक धारा में वापस लाने के लिए सुधार का एक अवसर देने के सभी उपायों को लागू किया जाना चाहिए।"
कोर्ट ने इन्हीं टिप्पणियों के साथ आईपीसी की धारा 304 पार्ट 1 के तहत दोषी करार दिए गए एक आरोपी की सजा में सुधार किया।
जस्टिस डॉ. कौशल जयेंद्र ठाकर और जस्टिस अजय त्यागी की पीठ ने जोर देकर कहा कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में अंतर्निहित सुधारात्मक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए सजा सुनाते समय अनुचित कठोरता से बचा जाना चाहिए।
संक्षेप में मामला
बेंच बाबू नाम आरोपी की ओर से दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसे मई, 2013 में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, बदायूं की अदालत ने धारा 304 (i) सहपठित धारा 34 आईपीसी और धारा 4/25 आर्म्स एक्ट के तहत दोषी ठहराया था।
दोषी/अपीलकर्ता को सह-अभियुक्त मुन्ना के साथ रानी (मृतक) की हत्या का दोषी पाया गया। अभियोजन पक्ष के अनुसार 20 अप्रैल 2010 को शिकायतकर्ता (कमलेश) सब्जी खरीदकर अपनी मां रानी (मृतक) के साथ घर लौट रहा था।
दोनों आरोपी पीछे से आए और बाबू ने उसकी मां के कंधे पर हाथ रखा, उसकी मां ने झटका दिया और आगे बढ़ गई, जिससे बाबू नाराज हो गया और उसने अपने कपड़े से चाकू निकालकर उसकी मां के पेट में मार दिया। दोनों आरोपित भाग गए। बाद में रानी की मौत हो गई।
न्यायालय के समक्ष अपीलकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि वह इस अपील को इसके गुण-दोष के आधार पर नहीं पेश कर रहा, बल्कि उसने केवल सजा को कम करने के लिए प्रार्थना की है। उन्होंने प्रस्तुत किया कि निचली अदालत द्वारा अपीलकर्ता को दी गई आजीवन कारावास की सजा बहुत कठोर है। उन्होंने यह भी प्रस्तुत किया कि अपीलकर्ता पिछले 9 वर्षों से अधिक समय से जेल में है।
कोर्ट की टिप्पणियां
शुरुआत में कोर्ट ने कहा कि ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है, जिससे अपीलकर्ता को कोई फायदा हो। कोर्ट ने कहा कि अपराध में इस्तेमाल चाकू आरोपी-अपीलकर्ता बाबू के बताने पर जांच अधिकारी ने बरामद किया था।
कोर्ट ने कहा कि मेडिकल साक्ष्य यह दर्शाता है कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उल्लिखित चोट नंबर 2, वह चोट है जिसे चाकू जैसे हथियार से किया गया हो सकता है। इसलिए, कोर्ट ने पाया कि चश्मदीद गवाह पीडब्ल्यू 2 के ऑक्यूलर वर्जन की मेडिकल साक्ष्य से पुष्टि हुई है।
नतीजतन, इस निष्कर्ष पर पहुंचते हुए कि आरोपी अपराधी है, अदालत ने इस सवाल पर विचार किया कि क्या आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा पर्याप्त है या सजा को संशोधित करने की आवश्यकता है।
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को ध्यान में रखते हुए कहा कि उचित सजा लागू करने पर विचार करते हुए, पूरे समाज पर अपराध के प्रभाव और कानून के शासन को संतुलित करने के मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है।
इस बात पर बल देते हुए कि देश में न्यायिक प्रवृत्ति सुधार और दंड के बीच संतुलन बनाने की ओर रही है, न्यायालय ने कहा,
"समाज की सुरक्षा और आपराधिक प्रवृत्ति को समाप्त करना कानून का उद्देश्य होना चाहिए ,जिसे अपराधियों और गलत काम करने वालों को उचित सजा देकर प्राप्त किया जा सकता है। कानून को शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक उपकरण के रूप में, समाज के सामने आने वाली चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना करना चाहिए, क्योंकि अपराध और नफरत के गंभीर खतरों के बीच समाज लंबे समय तक विकसित नहीं हो सकता। इसलिए, सजा देने में अनुचित ढिलाई से बचना आवश्यक है। इस प्रकार, देश में अपनाया गया आपराधिक न्याय न्यायशास्त्र प्रतिशोधी नहीं बल्कि सुधारात्मक है। साथ ही हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में अंतर्निहित सुधारात्मक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए अनुचित कठोरता से भी बचा जाना चाहिए।"
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी नोट किया कि वर्तमान मामले में, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की संपूर्णता और अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, विद्वान ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा बहुत कठोर है।
इसलिए, निचली अदालत द्वारा अपीलकर्ता बाबू को सुनाई गई सजा को 10 साल के कठोर कारावास के साथ 10,000/- रुपये के जुर्माने के रूप में संशोधित किया गया।
केस टाइटल- बाबू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [CRIMINAL APPEAL No. - 2878 of 2013]
केस साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 365