केवल पीड़ित की मानसिक स्थिति को प्रमाणित करने में विफल रहने से मृत्यु पूर्व दिया गया बयान अविश्वसनीय नहीं हो जाताः उड़ीसा हाईकोर्ट
उड़ीसा हाईकोर्ट ने माना है कि मृत्यु पूर्व दिए गए बयान को रिकॉर्ड करने से पहले मृतक की 'मानसिक स्थिति' को प्रमाणित करने में डाक्टर की विफलता,उसके बयान को पूरी तरह से अविश्वसनीय नहीं बना देगी, अगर डॉक्टर इस बात से संतुष्ट है कि पीड़िता अपना बयान देेने के लिए एक उपयुक्त मानसिक स्थिति में थी।
मुख्य न्यायाधीश डॉ. एस. मुरलीधर और जस्टिस चित्तरंजन दास की खंडपीठ ने एक अपील खारिज करते हुए कहा,
''जब बयान दिया गया तो डॉक्टर वहां पर मौजूद था और वास्तव में वह डॉक्टर ही है जिन्होंने उसका बयान रिकॉर्ड किया था। इसलिए, प्रत्येक मामला अपने स्वयं के तथ्यों को बदल देता है और इसे उल्लंघन योग्य सामान्य नियम के रूप में निर्धारित नहीं किया जा सकता है कि पीड़ित की चेतना की स्थिति के प्रमाणीकरण के बिना व इस तरह के समर्थन के बिना दर्ज किए गए बयान को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए ... केवल इसलिए कि उसने बेड हेड टिकट पर यह नहीं लिखा था कि पीड़िता होश में थी, इसका मतलब यह नहीं होगा कि पीड़िता द्वारा कभी भी ऐसा कोई बयान नहीं दिया गया था। यह भी आलोचना के लिए अच्छा है कि बयान प्रश्न-उत्तर के रूप में नहीं थी। लेकिन मृत्यु से पूर्व दिए गए बयान को स्वीकार करने के लिए ये अनिवार्य आवश्यकताएं नहीं हैं।''
संक्षिप्त तथ्यः
अपीलकर्ता को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, पुरी द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 376 के तहत दोषी करार दिया था। उसे 15 साल की लड़की के शरीर पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगाकर हत्या करने का दोषी पाया गया है। इसके अलावा, उसने लड़की की जान लेने से पहले उसका यौन उत्पीड़न भी किया था। इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने जिला मुख्यालय अस्पताल, पुरी में उपस्थित चिकित्सक के समक्ष पीड़िता द्वारा दिए गए मृत्यु-पूर्व बयान पर भरोसा करते हुए अपीलकर्ता को दोषी करार दिया था।
निचली अदालत के निर्णय से व्यथित होकर उसने यह आपराधिक अपील हाईकोर्ट में दायर की थी।
अपीलकर्ता की दलीलेंः
अपीलकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता श्री बिक्रम चंद्र घदेई ने बताया कि डॉक्टर द्वारा ऐसा कोई प्रमाण पत्र नहीं दिया गया था कि पीड़िता सचेत थी और बयान देने के लिए उसकी मानसिक स्थिति ठीक थी। इस प्रकार, ट्रायल कोर्ट को मृत्यु पूर्व दिए गए बयान को स्वीकार नहीं करना चाहिए था। इस संबंध में, उन्होंने सुरिंदर कुमार बनाम हरियाणा राज्य 2011 एसएआर (आपराधिक) 972 के मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा किया।
उन्होंने आगे तर्क दिया कि पीड़िता की मां ने गवाह के रूप में मृत्युपूर्व दिए गए बयान का समर्थन नहीं किया, हालांकि वह पूरे समय मौजूद रही थी। उनका यह भी निवेदन था कि चूंकि मृतका 95 प्रतिशत जल गई थी, इसलिए इस बात की बहुत कम संभावना थी कि वह कोई भी बयान देने के लिए मानसिक रूप से उपयुक्त स्थिति में थी। इसलिए मृत्यु-पूर्व दिए गए बयान को खारिज कर दिया जाना चाहिए था।
प्रतिवादी की दलीलेंः
राज्य की ओर से पेश अतिरिक्त सरकारी वकील श्रीमती शाश्वत पटनायक ने प्रस्तुत किया कि पीडब्ल्यू -8 ने मृत्युपूर्व दिए गए बयान को सही ढंग से दर्ज किया था, जो एक सरकारी कर्मचारी होने के नाते अस्पताल में उपस्थित चिकित्सक थे। उन्होंने तर्क दिया कि किसी भी सबूत को गढ़ने की पीडब्ल्यू-8 को कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वह मृतका या अपीलकर्ता से बिल्कुल भी संबंधित नहीं था। अपनी दलीलों को पुष्ट करने के लिए, उन्होंने लक्ष्मण बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2002) 6 एससीसी 710 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मृतक की मानसिक स्थिति के बारे में डॉक्टर द्वारा दिए गए प्रमाणीकरण के अभाव में भी,मृत्यु पूर्व दिए गए बयान पर भरोसा किया जा सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियांः
न्यायालय ने माना कि पीडब्ल्यू-8 स्पष्ट रूप से एक अनुभवी चिकित्सक है और जहां तक मृत्यु से पहले दिए गए बयान का संबंध है,वह स्थिति की गंभीरता से पूरी तरह अवगत था। इसके अलावा, उन्होंने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि, ''बयान दर्ज करते समय, हालांकि वह बात करने में सक्षम थी लेकिन गंभीर दर्द से पीड़ित थी''।
पीठ ने लक्ष्मण बनाम महाराष्ट्र राज्य (सुप्रा) में की गई निम्नलिखित टिप्पणियों पर भरोसा कियाः
''अनिवार्य रूप से यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति मृत्यु से पहले दिए गए बयान को दर्ज करता है, उसे इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि मृतक की मानसिक स्थिति ठीक थी। जहां मजिस्ट्रेट की गवाही से यह साबित हो जाता है कि घोषणाकर्ता डॉक्टर की जांच के बिना भी बयान देने के लिए फिट था,वहां ऐसे बयान पर कार्रवाई की जा सकती है बशर्ते अदालत अंततः इसे स्वैच्छिक और सत्य मानती है। डॉक्टर द्वारा प्रमाणीकरण अनिवार्य रूप से सावधानी का एक नियम है और इसलिए बयान की स्वैच्छिक और सत्य प्रकृति को अन्यथा स्थापित किया जा सकता है।''
कोर्ट ने आगे कहा कि डॉक्टर को यह पता था कि वह क्या कर रहा है और इसलिए उसे मरने से पहले दिए गए एक ऐसे बयान लिखने की कोई जरूरत नहीं थी जो कभी दिया ही नहीं गया था। सिर्फ इसलिए कि उसने बेड हेड टिकट पर यह नहीं लिखा था कि पीड़िता होश में थी, इसका मतलब यह नहीं होगा कि पीड़िता द्वारा ऐसा कोई बयान कभी नहीं दिया गया था।
कानून और तथ्यों की उपरोक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने कहा,
''मौजूदा मामले में, मृत्यु से पहले दिया गया बयान स्पष्ट रूप से दोनों मामलों में (यानी आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध और आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए)अपीलकर्ता के अपराध की ओर इशारा करता है। यह ऐसा मामला नहीं है जहां मृतक ने असंगत मृत्यु-पूर्व बयान दिए हैं। तथ्य यह है कि यद्यपि उसे 10 मई, 2012 को सुबह लगभग 2 बजे जिंदा जला दिया गया था, वह 13 मई, 2012 की दोपहर तक, यानी तीन दिनों से अधिक समय तक जीवित रही। इसके अलावा, वह 11 मई, 2012 को रात 9 बजे मृत्युकालीन बयान देने के बाद भी लगभग 48 घंटे तक जीवित रही। मृत्यु से पहले दिए गए बयान के लिए उसकी मनोदशा का आकलन उपरोक्त पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए, भले ही वह 95 प्रतिशत जली हुई थी।''
तद्नुसार, न्यायालय ने निचली अदालत के निष्कर्ष को बरकरार रखा और अपील को योग्यता से रहित बताते हुए खारिज कर दिया।
केस टाइटल- मिलू उर्फ रश्मी रंजन जेना बनाम ओडिशा राज्य
केस नंबर- सीआरएलए नंबर 23/2014
फैसले की तारीख-31 अक्टूबर 2022
कोरम- डॉ. एस. मुरलीधर, सी.जे. और चित्तरंजन दास, जे.
जजमेंट लेखक- डॉ. एस. मुरलीधर, सी.जे.
अपीलकर्ता के लिए वकील-श्री बिक्रम चंद्र घदेई
प्रतिवादी के लिए वकील- श्रीमती शाश्वत पटनायक, अतिरिक्त सरकारी वकील
साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (ओरि) 152
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