सरोगेसी से बच्चे पैदा करने वाली मां को मैटरनिटी लीव से इनकार नहीं किया जा सकता: राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण आदेश में स्पष्ट किया कि प्राकृतिक जैविक मां और सरोगेसी के माध्यम से बच्चा पैदा करने वाली मां को मैटरनिटी लीव देने के उद्देश्य से अलग नहीं किया जा सकता।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड की एकल-न्यायाधीश पीठ ने यह भी कहा कि सरोगेसी की प्रक्रिया के माध्यम से जन्मे शिशुओं को दूसरों की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता है और उन्हें शैशवावस्था के दौरान 'मां के प्यार, देखभाल, सुरक्षा और ध्यान' की आवश्यकता होती है।
कोर्ट ने कहा,
“…भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित जीवन के अधिकार में मातृत्व का अधिकार और बच्चे को प्यार, स्नेह का बंधन और पूर्ण देखभाल और ध्यान पाने का अधिकार शामिल है। ...प्राकृतिक जैविक मां और सरोगेट/कमीशनिंग मां के बीच अंतर करना मातृत्व का अपमान होगा। जहां तक मैटरनिटी लीव का सवाल है, एक मां के साथ केवल इसलिए भेदभाव नहीं किया जा सकता क्योंकि उसने सरोगेसी की प्रक्रिया से बच्चे को जन्म दिया है। सरोगेसी से पैदा हुए अपने जुड़वा बच्चों की देखभाल करने के आरोप को रद्द किया जाना चाहिए।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने यह भी गंभीर टिप्पणी की कि मैटरनिटी लीव का लाभ उठाने के लिए कमीशनिंग/सरोगेट माताओं के अधिकार को तत्काल उचित कानून के माध्यम से शामिल किया जाना चाहिए। हालांकि विभिन्न हाईकोर्ट ने बार-बार कानूनी उदाहरणों के माध्यम से उक्त प्रस्ताव को मजबूत किया है।
कोर्ट ने आगे कहा,
“…लेकिन प्रावधान इस संबंध में मौन हैं। इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार सरोगेट और कमीशनिंग माताओं को मैटरनिटी लीव देने के लिए इस संबंध में उचित कानून लाए...",
हाईकोर्ट ने रजिस्ट्री को दिए गए आदेश की कॉपी कानून और न्याय मंत्रालय के साथ-साथ प्रमुख सचिव, कानून और कानूनी मामले विभाग, राजस्थान को उचित कार्रवाई के लिए अग्रेषित करने का निर्देश दिया।
कमीशनिंग मदर वह महिला होती है, जो सरोगेट मां के किराए के गर्भ से बच्चा प्राप्त करना चाहती है। हाईकोर्ट ने सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के प्रावधानों पर गौर करने के बाद कहा कि कमीशनिंग मां बच्चे की जैविक मां बनी रहती है और बच्चे के संबंध में सभी अधिकार बरकरार रखती है।
हाईकोर्ट के समक्ष राज्य द्वारा अपनाई गई दलीलों का सार यह था कि राजस्थान सेवा नियम, 1951 का नियम 103 उस मां (कमीशनिंग मां) को मैटरनिटी लीव देने पर विचार नहीं करता, जिसने सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से बच्चे को जन्म दिया है। 'मातृत्व अवकाश' शब्द 1951 के सेवा नियमों में परिभाषित नहीं है।
राज्य द्वारा उठाए गए विवाद का विश्लेषण करने के बाद अदालत ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 में उल्लिखित 'मातृत्व लाभ' और 'बच्चे' की व्याख्याओं और सामान्य बोलचाल में और कानून की अदालतों द्वारा प्रतिपादित 'मैटरनिटी लीव' की विभिन्न परिभाषाओं पर भरोसा किया। बाद में अदालत ने कहा कि सरकार ने पहले ही सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के माध्यम से बांझ जोड़ों के लिए अपना बच्चा पैदा करने के विकल्प के रूप में सरोगेसी को मान्यता दे दी है।
अदालत ने 'मैटरनिटी लीव' शब्द की व्याख्या करने वाले विभिन्न निर्णयों का व्यापक संदर्भ देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा,
“...एक बार सरोगेसी को विधानमंडल द्वारा 2021 का अधिनियम बनाकर मान्यता दे दी गई है और महिला अब सरोगेसी की प्रक्रिया के माध्यम से मां बन सकती है तो उसे सरोगेसी के माध्यम से बच्चे के जन्म के बाद मैटरनिटी लीव के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता।"
देवश्री बांधे बनाम छत्तीसगढ़ स्टेट पावर होल्डिंग कंपनी लिमिटेड एवं अन्य [2017] में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा, रमा पांडे बनाम भारत संघ और अन्य में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा और डॉ. श्रीमती हेमा विजय मेनन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2015) में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों पर भरोस किया गया, जिनमें उक्त हाईकोर्ट द्वारा यह स्पष्ट रूप से माना गया कि महिला कर्मचारी जो कमीशनिंग मां है, वह लागू नियमों और विनियमों के तहत एक दत्तक मां की तरह ही मैटरनिटी लीव की हकदार होगी।
अदालत ने राज्य अधिकारियों द्वारा दिए गए आदेश रद्द करते हुए निष्कर्ष निकाला,
“भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मातृत्व का अधिकार और प्रत्येक बच्चे के पूर्ण विकास का अधिकार भी शामिल है। यदि सरकार गोद लेने वाली मां को मैटरनिटी लीव दे सकती है तो सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से बच्चे को जन्म देने वाली मां को मैटरनिटी लीव देने से इनकार करना पूरी तरह से अनुचित होगा। इस तरह गोद लेने वाली मां के बीच कोई अंतर नहीं किया जा सकता है। बच्चा और एक मां, जो सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से एक बच्चे को जन्म देती है…”
सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से जुड़वां बच्चे पैदा करने वाली याचिकाकर्ता कर्मचारी ने 180 दिनों के मैटरनिटी लीव के लिए आवेदन किया था। इस आवेदन को राज्य अधिकारियों ने 23.06.2020 को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि राजस्थान सेवा नियम, 1951 में कोई संबंधित प्रावधान नहीं है। इस आदेश को वर्तमान रिट याचिका में चुनौती दी गई।
कोर्ट के आदेश में जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने राज्य सरकार को 3 महीने के भीतर याचिकाकर्ता को मैटरनिटी लीव स्वीकृत करने और सभी परिणामी लाभ प्रदान करने का भी निर्देश दिया।
केस टाइटल: गायत्री बनाम महाराजा गंगा सिंह यूनिवर्सिटी एवं अन्य
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