कर्नाटक हाईकोर्ट ने ऑनलाइन कक्षाओं पर प्रतिबंध लगाने के राज्य सरकार के आदेश पर रोक लगाई, कहा, यह अनुच्छेद 21A के खिलाफ

Update: 2020-07-08 11:45 GMT

कर्नाटक हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि राज्य सरकार का ऑनलाइन कक्षाओं पर प्रतिबंध लगाने का आदेश प्रथम दृष्टया संविधान के अनुच्छेद 21 और 21A के तहत दिए गए जीवन और शिक्षा मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण है।

चीफ जस्टिस अभय श्रीनाथदास ओका और जस्टिस नटराज रंगास्वामी की खंडपीठ ने टिप्‍पणी की, "प्रथम दृष्टया हम मानते हैं कि 15 जून और 27 जून के दोनों आदेश, संविधान के अनुच्छेद 21 और 21 ए के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं।"

कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत सरकार द्वारा पारित कार्यकारी आदेश अनुच्छेद 21 और 21 ए के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों पर रोक नहीं लगा सकता है।

पीठ ने 15 जून और 27 जून को जारी सरकारी आदेशों को पर रोक लगाने के लिए अंतरिम निर्देश पारित किया। सरकारी आदेशों में LKG से दसवीं कक्षा तक के ऑनलाइन कक्षाओं के संचालन पर प्रतिबंध/ रोक लगाई गई थी।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आदेश का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि स्कूल के अधिकारियों को ऑनलाइन शिक्षा अनिवार्य करने का अधिकार है या ऑनलाइन कक्षाओं के संचालन के लिए अतिरिक्त शुल्क वसूलने का अधिकार होगा।

पीठ ने कहा, "हमारे आदेश का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि जिन छात्रों ने ऑनलाइन शिक्षा का विकल्प नहीं चुना, पढ़ाई शुरु होने पर, उन्हें सामान्य शिक्षा से वंचित किया जाना चाहिए।"

हाईकोर्ट का यह आदेश रिट याचिकाओं के एक समूह पर आया, जिसमें सरकार के फैसले को चुनौती दी गई थी।

पीठ ने कहा, "इस वर्ष का अकादमिक सत्र शुरू हो चुका है, इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता है। शिक्षा प्रदान करने का एकमात्र तरीका ऑनलाइन कोचिंग/ ऑनलाइन प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करना है।"

पीठ ने माना कि ऑनलाइन शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने के आदेश के पीछे कोई "तर्कसंगत आधार" नहीं था।

पीठ ने कहा कि यह तथ्य कि राज्य ऑनलाइन शिक्षा को कुछ श्रेणियों के विद्यालयों में लागू करने में सक्षम नहीं है, यह इस बात का आधार नहीं हो सकता कि तथाकथित "एलीट स्कूलों" को अपने छात्रों को ऑनलाइन शिक्षा नहीं देनी चाहिए।

सरकार ने 15 जून को आदेश दिया था कि कोई भी स्कूल तब तक ऑनलाइन शिक्षा प्रदान न करे जब तक कि सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ऑनलाइन कक्षाओं की व्यवहार्यता के बारे में अपने सुझाव प्रस्तुत न कर दे।

बाद में 27 जून को सरकार ने आदेश को संशोधित किया और निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन करते हुए, केजी से पांचवी तक के छात्रों के लिए सीमित घंटों के लिए ऑनलाइन कक्षाएं चलाने की अनुमति दे दी।

राज्य ने कहा कि प्रतिबंध केवल एक अंतरिम उपाय था, जब तक कि सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए विकल्पों की खोज नहीं लेती कि कोई भी छात्र इंटरनेट की पहुंच के अभाव में शिक्षा से वंचित न रह जाए।

सरकार द्वारा कोर्ट को दिए गए आंकड़ों के अनुसार, राज्य में लगभग 1.45 करोड़ छात्र हैं। सरकारी स्कूलों में लगभग 44 लाख छात्र, निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में 13.60 लाख और निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में लगभग 45 लाख छात्र पढ़ते हैं। इनमें 58.61 लाख छात्र शहरी इलाकों में और 45.88 लाख छात्र ग्रामीण इलाकों में हैं।

सरकार के फैसले का बचाव करते हुए, एडवोकेट जनरल प्रभुलिंग नवदगी ने कहा,

"राज्य का प्रयास यह सुनिश्चित करना है कि एक भी छात्र शिक्षा से वंचित न रह जाए। यदि आठ छात्र ऑनलाइन कक्षाएं ले रहे हैं और दो नहीं हैं, तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। ये सभी कारक हैं जिन पर विचार करने की आवश्यकता है। 0-6 वर्ष छात्र अधिक नाजुक हैं, जिन्हें न केवल शिक्षा या मौलिक अधिकार बल्कि बाल मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए। बच्चे ऑनलाइन कक्षाओं पर कैसे प्रतिक्रिया दे रहे हैं? किंडरगार्टन केवल स्कूली शिक्षा के बारे में नहीं है, यह पालन-पोषण के बारे में भी। ये उनके निर्माण के वर्ष हैं, आज हम जो कुछ भी उन्हें सिखाते हैं वह उनके व्यक्तित्व की नींव रखेगा।"

अभिभावक की ओर से पेश एडवोकेट प्रमोद नायर ने तर्क दिया कि राज्य मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले आदेश जारी करने के लिए अनुच्छेद 162 के तहत अपनी कार्यकारी शक्तियों पर भरोसा नहीं कर सकता। मौलिक अधिकारों पर किसी भी प्रतिबंध के लिए कानून के अधिकार की आवश्यकता होती है और कार्यकारी आदेश के माध्यम से इसे वैध रूप से प्रभावी नहीं किया जा सकता है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील उदय होल्ला और एडवोकेट प्रदीप नायक ने कहा कि सरकार का फैसला छात्रों की शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन है।

याचिकाकर्ताओं ने यह तर्क भी दिया कि सरकार के पास सीबीएसई / आईसीएसई बोर्ड से संबद्ध स्कूलों को नियंत्रित करने के लिए शक्तियों का अभाव है।

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