'जुवेनाइल ने समाज को भयभीत करते हुए बच्चों को असुरक्षित महसूस कराया है' इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 6 साल की बच्ची से बलात्कार करने वाले नाबालिग आरोपी को जमानत देने से इनकार किया
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में विशेष न्यायाधीश (पाॅक्सो), कानपुर नगर के उस आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है,जिसके तहत एक जुवेनाइल (नाबालिग) की तरफ से दायर आपराधिक अपील संख्या 30/2019 को खारिज कर दिया गया था। इस नाबालिग पर एक छह साल की बच्ची से बलात्कार करने का आरोप है।
(नोट- विशेष न्यायाधीश (पाॅक्सो) कानपुर नगर ने किशोर न्याय बोर्ड के 16 फरवरी 2019 के एक आदेश की पुष्टि की थी। जेजे बोर्ड ने जुवेनाइल को केस अपराध संख्या 530/2018 में जमानत देने से इनकार कर दिया था। यह केस आईपीसी की धारा 376 और पाॅक्सो एक्ट की धारा 3/4 के तहत पुलिस स्टेशन पनकी,जिला कानपुर नगर में दर्ज किया गया था।)
न्यायमूर्ति जे जे मुनीर की खंडपीठ ने कहा कि,
''यह मामला दिखाता है कि अगर जुवेनाइल पर लगाए गए आरोप सही हैं तो उसके कार्य ने समाज और उसके परिवेश को भयभीत या चैंकना कर दिया है। उसके कार्यों से एक ऐसी स्थिति पैदा हुई है, जहां प्रथम दृष्टया छोटे बच्चे ही नहीं उनके माता-पिता या गार्जियन भी अपनी दिनचर्या के दौरान सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे,जहां उनके पास अतिरिक्त सावधानी बरतने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।''
केस के तथ्य
दिनांक 16 नवम्बर 2018 को एक एफआईआर प्रतिवादी नंबर 2 ने दर्ज कराई थी। जिसमें बताया गया था कि घटना 15 नवम्बर 2018 की है।
प्राथमिकी में बताया गया था कि शिकायतकर्ता की नाबालिग बेटी (पीड़िता) लगभग छह साल की है,जो घटना के समय मोहल्ले के अन्य बच्चों के साथ खेल रही थी। आरोपी जुवेनाइल भी उसी इलाके में रहता था और उसने उससे बलात्कार किया।
उपरोक्त सूचना के आधार पर पुलिस स्टेशन पनकी,जिला कानपुर नगर में आईपीसी की धारा 376 व पाॅक्सो एक्ट की धारा 3/4 के तहत केस अपराध संख्या 530/2018 दर्ज किया गया था।
इसके बाद, संशोधनवादी या जुवेनाइल ने किशोर न्याय बोर्ड से सपंर्क करते हुए उसे नाबालिग घोषित करने की मांग की। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने अपने 8 जनवरी 2019 के आदेश के तहत उसे घटना वाले दिन 14 साल, 3 महीने और 15 दिन का माना।
बाद में जुवेनाइल ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 12 के तहत एक आवेदन दायर कर जमानत पर रिहा किए जाने की मांग की। परंतु इस जमानत अर्जी को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने खारिज कर दिया।
जुवेनाइल ने अपील दायर सत्र न्यायाधीश के समक्ष इस आदेश को चुनौती दी। परंतु उसकी अपील को खारिज कर दिया गया। जमानत से इनकार करने वाले दोनों आदेशों को चुनौती देते हुए जुवेनाइल की तरफ से हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान रिविजन दायर की गई थी।
तर्क
जुवेनाइल के वकील ने तर्क दिया कि उनके मामले पर अधिनियम की धारा 12 (1) के मापदंडों के तहत कड़ाई से विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि संशोधनवादी या जुवेनाइल की उम्र को ध्यान में रखते हुए जमानत याचिका पर विचार किया जाना चाहिए। इस मामले में अभियोजन पक्ष के मामले या अपराध की गंभीरता का कोई संदर्भ नहीं दिया जाना चाहिए।
दूसरी ओर, ए.जी.ए ने आग्रह किया कि यह एक जघन्य अपराध है, जहां छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया गया है। मामले में, संशोधनवादी को जमानत पर रिहा कर दिया गया तो इससे न्याय की पराजय होगी।
कोर्ट का विश्लेषण
न्यायालय ने कहा कि यह एक ऐसा मामला है, जिसमें संशोधनवादी, हालांकि 16 वर्ष से कम उम्र का है और उसने बहुत कम उम्र की बच्ची के साथ अपराध किया है,जो अभी छह साल की ही थी।
अदालत ने उल्लेख किया कि पीड़िता की मां द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी में,पुलिस द्वारा दर्ज किए गए सीआरपीसी की धारा 161 के तहत पीड़िता व उसकी मां के बयान में और मजिस्ट्रेट के समक्ष पीड़िता द्वारा सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज कराए गए बयान में एक जैसी बातें कही गई है।
इस संदर्भ में, कोर्ट ने कहा,
''अपराध की गंभीरता, अपराध के तरीके, उन परिस्थितियों में जिसमें अपराध किया गया है, इसके समाज व स्थानीय स्तर पर पड़ने वाले तत्काल व बाद के प्रभाव और विशेष तौर पर इसका पीड़ित परिवार पर पड़ने वाला प्रभाव आदि ऐसे तथ्य हैं,जिनको जुवेनाइल की जमानत पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।''
न्यायालय का विचार था कि ये सभी कारक अधिनियम की धारा 12 (1) के परंतुक के तहत स्वीकृत अंतिम असंतोष खंड ( last disentitling clause postulated under the proviso to Section 12(1) of the Act )के तहत प्रासंगिक हैं, जो यह कहता है कि किशोर की रिहाई 'न्याय की पराजय' होगी।
अदालत ने आगे टिप्पणी करते हुए कहा कि,
''आखिरकार 'न्याय की पराजय या defeat the ends of justice' कला का एक शब्द नहीं है। इसे विधायिका द्वारा सोच-समझकर न्यायालय को सौंपा गया है ताकि उन मामलों में जमानत के पूर्ण अधिकार पर काबू पाया जा सके, जिसमें परिस्थितियों की समग्रता, जमानत पर रिहा होने से कानून- व्यवस्था पर पड़ने वाला प्रतिकूल प्रभाव और एक आदेशित समाज का संतुलन आदि तथ्य शामिल हो।''
अंत में अदालत ने कहा कि यह एक ऐसा मामला है जहां कानून के साथ संघर्ष में बच्चे यानी जुवेनाइल की रिहाई न्याय की पराजय होगी।
परिणामस्वरूप, इस अदालत को उपरोक्त आदेशों में हस्तक्षेप करने के लिए कोई अच्छा आधार नहीं मिला है। इसलिए इस रिविजन को खारिज किया जाता है।
हालांकि, जुवेनाइल के डिटेंशन की अवधि को देखते हुए हाईकोर्ट ने संबंधित अदालत को निर्देश दिया है कि वह जल्द से जल्द इस मामले की सुनवाई पूरी करें। साथ ही कहा है कि अगर कोई कानूनी बाधा न हो तो सीआरपीसी की धारा 309 के अनुसार व विनोद कुमार बनाम पंजाब राज्य 2015 (3) एससीसी 220 मामले में शीर्ष न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय में निर्धारित सिद्धांत के अनुसार, इस आदेश की प्रति प्राप्त होने के दो माह के अंदर मामले की सुनवाई पूरी कर दी जाए।