बाल विवाह की बुराई खत्म करने का अभियान राज्यों को याद दिलाना जरूरीः पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही में एक संरक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ताओं (जिनकी अभी विवाह योग्य आयु नहीं हुई है) को सुरक्षा प्रदान करने से इनकार कर दिया और रिट याचिका को खारिज करते हुए कहा कि बाल विवाह की बुराई को खत्म करने के मुद्दे पर राज्य को विचार करने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति मनोज बजाज की खंडपीठ दया राम (याचिकाकर्ता नंबर एक,आयु बीस वर्ष दो महीने) और रीनू (याचिकाकर्ता नंबर दो,आयु 14 वर्ष आठ महीने) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने दावा किया था कि वह पिछले एक साल से एक दूसरे को जानते हैं और समय बीतने के साथ उनके बीच प्यार हो गया, लेकिन रीनू के माता-पिता उनके रिश्ते का विरोध कर रहे हैं।
उन्होंने प्रस्तुत किया कि लड़की ने 1 जून, 2021 को अपना घर छोड़ दिया था और लड़के से संपर्क किया और विवाह योग्य आयु प्राप्त करने तक लिव-इन-रिलेशनशिप में साथ रहने का फैसला किया।
उन्हें आशंका है कि लड़की के माता-पिता उन्हें नहीं छोड़ेंगे क्योंकि उन्हें लगातार धमकियां मिल रही हैं। उन्होंने पुलिस अधीक्षक, सिरसा को एक अभ्यावेदन भेजा, परंतु आधिकारिक प्रतिवादियों की तरफ से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला और आज तक उन्हें कोई सुरक्षा प्रदान नहीं की गई है। इसलिए, याचिकाकर्ताओं ने आवश्यक निर्देश जारी करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है।
न्यायालय की टिप्पणियां
शुरुआत में, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि लड़की/रीनू मात्र 14 साल और 8 महीने की है और इस समय नाबालिग है।
इसके अलावा, इन्डिपेंडेंट थाॅट बनाम यूनियन आॅफ इंडिया एंड अदर्स, (2017) 10 सुप्रीम कोर्ट केस 800 का जिक्र करते हुए, कोर्ट ने कहा कि बाल विवाह के प्रतिकूल प्रभावों का सुप्रीम कोर्ट द्वारा गहराई से विश्लेषण किया गया था।
इन्डिपेंडेंट थाॅट मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था किः
''वास्तव में कम उम्र में विवाह या बाल विवाह की प्रथा भले ही परंपरा और रीति-रिवाज के अनुसार पवित्र हो, लेकिन इसके हानिकारक प्रभावों और कम उम्र में गर्भावस्था के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता और ज्ञान के कारण आज यह एक अवांछनीय प्रथा हो सकती है। क्या ऐसी पारंपरिक प्रथा अभी भी जारी रहनी चाहिए? हम ऐसा नहीं सोचते हैं और जितनी जल्दी इसे छोड़ दिया जाएगा, यह बालिकाओं और समग्र रूप से समाज के हित में होगा।''
इसके अलावा, मामले के तथ्यों को देखते हुए, कोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि दो वयस्क कुछ दिनों से एक साथ रह रहे हैं,उनकी मामूली दलीलों के आधार पर लिव-इन-रिलेशनशिप का उनका दावा यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है कि वे वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप में हैं।
लड़के के बारे में, कोर्ट ने कहा कि वह लड़की का प्रतिनिधित्व कर रहा था, खुद को नाबालिग का दोस्त होने का दावा कर रहा था और रिट याचिका में दी गई दलीलों के अनुसार नाबालिग लड़की के अभिभावकों पर पूरा दोष लगा दिया गया ताकि यह जताया जा सके कि परिस्थितियों से मजबूर होकर लड़की ने स्वेच्छा से अपने माता-पिता का घर छोड़ा है और लड़के (याचिकाकर्ता नंबर 1)के साथ रहने लग गई है।
इसके अलावा, कोर्ट ने पाया कि लड़के पर पहले से ही प्रतिवादी नंबर 5 की नाबालिग बेटी के अपहरण का आरोप है, इसलिए कोर्ट ने कहा किः
''खुद को नाबालिग लड़की के वैध प्रतिनिधि के रूप में दावा करने का उसका स्टैंड-स्वीकृति के लायक नहीं है ... अजीब है कि याचिकाकर्ता नंबर 1 ने यह नहीं बताया कि नाबालिग लड़की ने घर छोड़ने के बाद अपने माता-पिता के खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत क्यों नहीं की या माता-पिता के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए क्यों किसी अन्य करीबी रिश्तेदार से संपर्क नहीं किया?''
कोर्ट ने यह भी कहा कि,
''इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि वर्तमान याचिका याचिकाकर्ता नंबर 1 द्वारा जल्दबाजी में दायर की गई है ताकि प्रतिवादी नंबर 5 के कहने पर दर्ज उपरोक्त प्राथमिकी में बचाव किया जा सके।''
अंत में, न्यायालय ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, सिरसा को एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राजस्थान पुलिस के साथ समन्वय के बाद नाबालिग लड़की की कस्टडी वापस उसके माता-पिता को सौंपी जा सकें।
कोर्ट ने यह भी कहा कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के दंडात्मक प्रावधान लागू कर दिए गए हैं,परंतु उसके बावजूद भी उक्त अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए बाल विवाह हो रहे हैं।
केस शीर्षक - दया राम व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य
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