सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस मदन लोकुर ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की हालिया सिफारिशों की आलोचना की

Update: 2019-09-11 10:33 GMT

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की हालिया सिफारिशे "मनमानी होने के करीब, निरंतरता की अनुपस्थिति का संकेत देती हैं"।

सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया को Chancellor's Foot syndrome (अर्थात चांसलर या निर्णय लेने के पद पर बैठे एक व्यक्ति द्वारा पूर्ण रूप से अपने अंतःकरण के मुताबिक निर्णय लिए जाने की प्रथा, जो किसी निर्धारित मानदंड पर आधारित नहीं होती) की संज्ञा देते हुए उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों के चयन के लिए कोई निश्चित मानदंड नहीं हैं और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं।"

उन्होंने एक उदाहरण का उल्लेख किया, जहां एक मुख्य न्यायाधीश के नाम की सिफारिश, उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति के लिए की गई थी, लेकिन वे सुप्रीम कोर्ट नहीं आ सके क्यूंकि उक्त सिफारिश पर 1 महीने की रोक लग गयी और बाद में कॉलेजियम की संरचना बदलने के बाद इस निर्णय को पलट दिया गया था। "कॉलेजियम का प्रस्ताव लगभग 1 महीने के लिए क्यों रोक दिया गया? क्या ऐसा करने की अनुमति है?" उन्होंने कहा।

उन्होंने उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में विसंगतियों की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया। उन्होंने कहा कि, मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) के अनुसार, यदि किसी उम्मीदवार के नाम की सिफारिश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में की जानी है तो उस उम्मीदवार को 45 वर्ष की आयु का होना चाहिए, हाल ही में नियुक्ति के लिए 45 वर्ष से कम आयु के एक उम्मीदवार के नाम की सिफारिश की गई थी।

इसी तरह, एक उम्मीदवार के नाम की सिफारिश नियुक्ति के लिए की गई थी, बावजूद इसके कि वह उम्मीदवार पूर्व परंपरा द्वारा स्थापित किये गए आय मानदंडों को पूरा नहीं करता था, उन्होंने कहा। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि इन उम्मीदवारों के बारे में इतना विशेष क्या था और आखिर सरकार ने इसमें हस्तक्षेप क्यूँ नहीं किया जब उम्र की कसौटी को लेकर MoP और पूर्व परंपरा का उल्लंघन किया गया।

न्यायमूर्ति लोकुर ने मद्रास उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति, वी. के. ताहिलरमानी को मेघालय उच्च न्यायालय स्थानांतरित करने की सिफारिश का उल्लेख करते हुए कहा, "यह चौंकाने वाला है कि एक चार्टर्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का बहुत, बहुत छोटे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण होता है। हालाँकि सभी उच्च न्यायालय समान होते हैं, और समान रूप से सम्मानित हैं, पर इस स्थानांतरण सिफारिश में शिष्टता का अभाव था और इसके पीछे कारण जो भी रहा हो, यह प्रथम दृष्टया अपमानजनक है और उन्होंने इस्तीफा देकर अच्छा किया है।"

तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी. वी. संजय कुमार को स्थानांतरित करने की कॉलेजियम की सिफारिश की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "एक उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित न्यायाधीश को कथित रूप से न्याय के बेहतर प्रशासन के लिए स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया जाता है, जिससे यह आभास होता है कि उच्च न्यायालय में उनकी उपस्थिति न्याय प्रशासन के लिए अनुकूल नहीं थी। क्या यह स्थानांतरण को दंडनीय नहीं बनाता है?"

उन्होंने कॉलेजियम के प्रस्तावों को लंबे समय तक रोके जाने की प्रथा की निंदा की, जिसमें कहा गया था कि "सिफारिश को कुछ महीनों तक लंबित रखा गया था और फिर, अचानक से, एक अज्ञात कारण के चलते (न्याय के बेहतर प्रशासन के लिए भी नहीं) बदलाव लाया जाता है । यह गोपनीयता क्यों? पारदर्शिता, कॉलेजियम के प्रस्तावों को वेबसाइट पर डालने, या नहीं डालने या हटा लेने के साथ समाप्त नहीं होती है - यह यहाँ से शुरू होती है।"

उन्होंने कहा कि यह फैसला इतने लंबे समय तक लंबित रखा गया कि पैरेंट हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। हालाँकि, इस संबंध में सरकार की ओर से एक पत्र के माध्यम से एक हलफनामे के बजाय एक जवाब दायर किया गया था और ऐसी अटकलें थीं कि इस न्यायिक मुद्दे को कॉलेजियम द्वारा प्रशासनिक रूप से निपटाया जाएगा। "यहाँ कुछ हो रहा है लेकिन आप नहीं जानते कि यह क्या है", उन्होंने अंत में कहा। 

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