भूषण पर जजमेंंट के संबंध में चिंता व्यक्त करते हुए इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट ने कहा, भारत में अवमानना कानून की समीक्षा की जाए

Update: 2020-09-02 16:16 GMT

अधिवक्ता प्रशांत भूषण को आपराधिक अवमानना के लिए दोषी ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर चिंता व्यक्त करते हुए ,इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट (आईसीजे) ने देश में आपराधिक अवमानना​कानूनों की समीक्षा करने का आग्रह किया है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 14 अगस्त (दोषी करार देना) और 31 अगस्त (सजा देना) को पारित निर्णयों का हवाला देते हुए आयोग ने इस फैसले को उन अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ असंगत माना है ,जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के दायरे को ही सीमित करते हैं। वहीं यह फैसला इस अधिकार के उपयोग के लिए भी एक जोखिम की तरह है।

आईसीजे ने इस मामले में चिंता जताते हुए विस्तार से कहा है कि उनके ट्वीट्स के लिए एक 'प्रमुख मानवाधिकार वकील' को दोषी ठहराने का फैसला भारत में संरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग पर 'बुरा प्रभाव' ड़ाल सकता है। वहीं बात सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के बारे में ही नहीं है, बल्कि यह निर्णय उन अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ भी तालमेल नहीं बना पा रहा है, जो समाज में वकीलों की भूमिका से संबंधित है।

अपनी प्रेस विज्ञप्ति में, आईसीजे ने अवमानना कानून को 'ओवरबोर्ड' बताया है और कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आपराधिक अवमानना पर प्रतिबंध को न्यूनतम करने के लिए इस कानून को अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानकों के समकालीन बनाया जाना चाहिए।

विशेष रूप से, आईसीजे ने सजा के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बने अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के साथ असंगत प्रतीत होती है। जबकि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय करार (अनुच्छेद 19, आईसीसीपीआर) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी मिली हुई है और भारत इस करार में एक पक्षकार है।

यह मानते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएं लागू हैं, आईसीजे ने जोर दिया कि न्यायपालिका की भूमिका, न्याय तक पहुंच और लोकतंत्र पर चर्चा करने के लिए जनता के सदस्यों को अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करने के लिए व्यापक संभव गुंजाइश दी जानी चाहिए। आयोग का मानना है कि प्रतिबंध केवल आवश्यक होने पर और आनुपातिक तरीके से लागू किया जाना चाहिए ताकि एक वैध उद्देश्य को पूरा किया जा सके।

इस प्रकार इस फैसले पर चिंता व्यक्त करते हुए आईसीजे के साथ 1800 से अधिक भारतीय वकील भी शामिल हो गए हैं और सभी ने सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि ''आपराधिक अवमानना के मानकों की समीक्षा'' की जानी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा भूषण को उनके दो ट्वीट के मामले में अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराए जाने के बाद,इस फैसले पर निराशा जाहिर करते हुए 17 अगस्त को 1300 से अधिक अधिवक्ताओं ने एक बयान जारी किया था। जिसमें मांग की गई थी कि इस सजा को तब तक प्रभाव में न लाया जाए, जब तक कि एक बड़ी बेंच द्वारा खुली अदालत में की जाने वाली सुनवाई के दौरान इस मुद्दे की समीक्षा नहीं की जाती है।

यह भी कहा गया था कि यह एक वकील का कर्तव्य है कि वह स्वतंत्र रूप से बार, बेंच और जनता के ध्यान में कमियों को ला सकें। वहीं यह भी कहा गया था कि अवमानना ​​के खतरे के तहत बार को खामोश करना न्यायपालिका को कमजोर करेगा।

''यह निर्णय जनता की नजर में अदालत के अधिकार को बहाल नहीं करता है। बल्कि, यह वकीलों को मुखर होने से हतोत्साहित करेगा। न्यायाधीशों के सूपर्सेशन के दिनों से लेकर बाद के मामलों में भी बार ही है जो सबसे पहले न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा में खड़ी हुई थी। ऐसे में अवमानना के खतरे के तहत बार को खामोश करना स्वतंत्रता को कम करने और अंततः न्यायालय की ताकत को कम करने के समान होगा। एक खामोश बार, एक मजबूत अदालत का नेतृत्व नहीं कर सकता है।''

इस बयान पर जानेमाने वकीलों ने अपने हस्ताक्षर किए थे, जिनमें वरिष्ठ अधिवक्ता जनक द्वारकादास, नवरोज एच सरवाई, डायरस जे खंबाटा, जयंत भूषण, दुष्यंत दवे, अरविंद पी दातार, हुजेफा अहमदी, सीयू सिंह, श्याम दीवान, संजय हेगड़े, मिहिर देसाई, मेनका गुरुस्वामी, पल्लव सिसोेदिया, शेखर नापड़े, राजू रामचंद्रन,बिस्वजीत भट्टाचार्य, पर्सी कविना आदि शामिल थे।

न केवल देश के बार संघों के अधिवक्ताओं ने इस फैसले पर अपनी चिंता व्यक्त की, इंग्लैंड और वेल्स की बार मानवाधिकार समिति ने भी इस मामले में 18 अगस्त को एक बयान जारी किया था।

अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का फैसला ''वैध आलोचना'' के साथ हस्तक्षेप करने के समान है। ब्रिटेन स्थित वकीलों के संघ ने इंगित किया कि यूनाइटेड किंगडम में अदालत को अपमानित करने के अपराध को समाप्त कर दिया गया था क्योंकि यह व्यापक रूप से महसूस किया गया था कि यह '' स्वतंत्र भाषण या वैध आलोचना'' पर ''अवांछनीय प्रभाव'' ड़ाल सकता है।

बीएचआरसी ने कहा कि ''हम इस बात से बेहद चिंतित हैं कि अपने फैसले तक पहुंचने में अदालत ने इस बात पर विचार नहीं किया कि वकील किसके हक में हैं, और सार्वजनिक रूप से वैध आलोचना करने की स्वतंत्रता कैसी होनी चाहिए।''

22 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने भूषण को अवमानना ​नोटिस जारी किया था। न्यायपालिका और भारत के मुख्य न्यायाधीश पर उनके दो ट्वीट के संबंध में पीठ ने इस मामले में स्वत संज्ञान लेते हुए यह मुकदमा दायर किया था।

इस पीठ में न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी भी शामिल थे। पीठ ने कहा था कि उनके ट्वीट ''न्याय के प्रशासन के प्रति असहमति लाए हैं और आम जनता की नजर में सामान्य रूप से सुप्रीम कोर्ट की और विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय की गरिमा और अधिकार को कमजोर करने में सक्षम हैं।''

 सुप्रीम कोर्ट की 3-न्यायाधीशों की पीठ ने  14 अगस्त कोभूषण को सुप्रीम कोर्ट और भारत के मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ किए गए उनके ट्वीट के मामले में अदालत की अवमानना​का दोषी ठहराया था।

20 अगस्त को सजा पर सुनवाई के दौरान, भूषण ने अपनी टिप्पणियों की पुष्टि की और अपने बयानों को सही ठहराते हुए एक बयान दिया और अदालत के फैसले पर निराशा व्यक्त की।

भूषण ने कहा था कि

'मेरे ट्वीट कुछ भी नहीं थे, बल्कि हमारे गणतंत्र के इतिहास के इस मोड़ पर, जिसे मैं अपना सर्वोच्च कर्तव्य मानता हूं, उसे निभाने का एक छोटा सा प्रयास थे। मैंने बिना सोचे-समझे ट्वीट नहीं किया था। यह मेरी ओर से ‌निष्ठारहित और अवमाननापूर्ण होगा कि मैं उन ट्वीट्स के लिए माफी की पेशकश करूं, जिनको मैंने व्यक्त किया और जिन्हें मैं अपने वास्तविक विचार मानता रहा हूं, और जो अब भी हैं।

इसलिए, मैं केवल विनम्रतापूर्वक यही कह सकता हूं, जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने ट्रायल में कहा था -मैं दया नहीं मांग रहा हूं। मैं उदारता की अपील नहीं करता हूं। इसीलिए, मैं यहां हूं,किसी भी दण्ड, जो कि न्यायालय ने अपराध के लिए निर्धारित किया है, के लिए मुझे कानूनी रूप से दंडित किया जा सकता है, और जो मुझे प्रतीत होता है कि यह एक नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य है।''

पीठ ने इस बयान की सराहना नहीं की थी और भूषण से पूछा था कि क्या वह इस पर पुनर्विचार करना चाहते हैं। पीठ ने अटॉर्नी जनरल से भूषण को बयान पर पुनर्विचार करने के लिए समय देने के बारे में भी पूछा था। एजी ने सहमति व्यक्त की थी कि उसे समय दिया जा सकता है।

हालांकि, भूषण अपने बयान के साथ खड़े रहे और कहा कि यह बयान पर्याप्त ''सोच व समझ'' के बाद दिया गया है। उन्होंने कहा कि वह अपने बयान पर पुनर्विचार नहीं करना चाहते हैं और उन्हें विचार करने लिए समय देने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।

फिर भी, पीठ ने कहा कि उनको बयान पर पुनर्विचार करने के लिए दो या तीन दिन का समय दिया जाएगा, और मामले को सुनवाई 25 अगस्त तक के लिए टाल दी थी।

25 अगस्त को भूषण द्वारा माफी मांगने से इनकार करने पर पीठ ने उनकी सजा पर आदेश सुरक्षित रख लिया था।

सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने इस पर अपनी निराशा व्यक्त की थी कि भूषण को माफी मांगने के लिए समय दिया गया था,परंतु उन्होंने अपने ट्वीट को सही ठहराने के लिए एक पूरक बयान जारी कर दिया।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा था कि

''हमें बताएं कि 'माफी' शब्द का उपयोग करने में क्या गलत है? माफी मांगने में क्या गलत है? क्या यह दोषी होने का प्रतिबिंब होगा? माफी एक जादुई शब्द है, जो कई चीजों को ठीक कर सकता है। मैं प्रशांत के बारे में नहीं बल्कि सामान्य तौर पर बात कर रहा हूं। यदि आप माफी मांगते हैं तो आप महात्मा गंगी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधीजी ऐसा करते थे। यदि आपने किसी को चोट पहुंचाई है, तो आपको मरहम लगाना चाहिए। किसी को ऐसा करने से अपने आप को छोटा या अपमानित महसूस नहीं करना चाहिए।''

भारत के अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने पीठ से अनुरोध किया था कि वह भूषण को दंडित न करें और फटकार या चेतावनी के बाद उसे छोड़ दें।

31 अगस्त को, न्यायालय ने उन्हें एक रुपये का जुर्माना देने के की सजा सुनाई, जिसे 15 सितंबर तक उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री के पास जमा करना है। जुर्माना जमा न कराने पर , भूषण को तीन महीने के कारावास की सजा काटनी होगी और उन्हें तीन साल के लिए सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने से भी रोक दिया जाएगा।

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