भारतीय अदालतें कस्टडी सहित बच्चों के कल्याण मामलों से जुड़े विदेशी न्यायालय के फैसलों की स्वतंत्र रूप से जांच करने के लिए बाध्य हैं: तेलंगाना हाईकोर्ट

Update: 2023-09-14 14:34 GMT

तेलंगाना हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि विदेशी राष्ट्रीयता वाले बच्चों की कस्टडी के मामलों से निपटते समय, भारतीय अदालतों को बच्चों के कल्याण से संबंधित मामलों में इनपुट के रूप में केवल एक विदेशी अदालत के निष्कर्षों को स्वीकार करना चाहिए और बच्चे का सर्वोत्तम हित के लिए किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए एक स्वतंत्र जांच करनी चाहिए।

जस्टिस के लक्ष्मण और जस्टिस के सुजाना की खंडपीठ ने कहा कि भारतीय सिविल अदालतों को रुचि माजू बनाम संजीव माजू के मामले में विदेशों की उच्चतर अदालतों द्वारा पारित निर्णयों का सम्मान करना होगा, हालांकि बच्चे के कल्याण का निर्धारण करने के मामलों में न्यायालय स्वतंत्र रूप से मामले की जांच करने के लिए बाध्य है।

"कॉमिटी ऑफ कोर्ट्स' का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि विदेशी निर्णय और आदेश विवाद वाले मामले में बिना शर्त निर्णायक हों। यह उन मामलों में और भी अधिक सच है, जहां इस देश की अदालतें नाबालिगों के हित और कल्याण से संबंधित मामलों से निपटती हैं, जिसमें उनकी कस्टडी भी शामिल है। नाबालिग का हित और कल्याण सर्वोपरि है, इस देश में एक सक्षम अदालत इस मामले की स्वतंत्र रूप से जांच करने के लिए हकदार है और वास्तव में कर्तव्यबद्ध है, विदेशी निर्णय, यदि कोई हो, को केवल वह अपने अंतिम निर्णय के लिए एक इनपुट के रूप में स्वीकार करे।"

मामले में याचिका दो नाबालिग बेटियों के पिता द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने दावा किया था कि उनकी पत्नी दो नाबालिगों बेटियों के साथ अवैध रूप से अपने देश (सिंगापुर) से भाग गई है। उन्होंने बेटियों की कस्टडी के लिए सिंगापुर फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उनके पक्ष में आदेश मिला।

उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की वापसी के लिए सिंगापुर फैमिली कोर्ट के आदेश के बाद वर्तमान बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की।

दूसरी ओर, प्रतिवादी (मां/पत्नी) ने तर्क दिया कि उसके पति के कई विवाहेतर संबंध थे, जिन्हें बेटियों ने देखा था। उन्होंने कहा कि इतनी कम उम्र में बच्चे स्थिति को समझ नहीं पाते हैं और इसका उनके मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। उसने अपने दावों को साबित करने के लिए सबूत भी सौंपे।

मां ने आगे कहा कि दोनों बच्चों को लड़कियां होने के कारण अपनी मां की जरूरत है और उन्हें भारत के स्कूलों में दाखिला दिलाया गया है और अंततः वे सामान्य बचपन जी रही हैं।

उसने कहा कि उसे अपने पति से कोई वित्तीय सहायता नहीं मिली, और उसके पति का अपने व्यवहार में सुधार करने का कोई इरादा नहीं है। न्यायालय ने दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता का भी आदेश दिया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।

कानून के सिद्धांतों और मामले के तथ्यों पर विचार करने के बाद, न्यायालय ने माना कि बेटियों को बचपन में मौलिक विकास के लिए अपने प्राकृतिक अभिभावक यानी अपनी मां की आवश्यकता होती है।

"जैसा कि शीर्ष न्यायालय ने कई निर्णयों में कहा है, विदेशों में पैदा हुए नाबालिग बच्चों की कस्टडी याचिकाकर्ताओं पर निर्णय लेते समय नाबालिग बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।"

बेंच ने प्र‌िंसिपल ऑफ कॉमिटी, प्रिंसिपल ऑफ फर्स्ट स्ट्राइक, डॉक्ट्राइन ऑफ इंटिमेंट कॉटेक्ट एंड क्लोजेस्ट कंसर्न का संदर्भ दिया और कहा कि बच्चे के सर्वोत्तम हित का सिद्धांत उपरोक्त सभी पर प्रबल होगा।

बहरहाल, न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाएं केवल कस्टडी के मामलों में ही सुनवाई योग्य होंगी यदि स्थापित कानून अप्रभावी हैं और नाबालिग की कस्टडी ऐसे व्यक्ति के पास है जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहीं है।

खंडपीठ ने यह भी कहा कि बेटियों की अच्छी तरह से देखभाल की जा रही है और वे स्कूल जा रही हैं, और यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें उनके प्राकृतिक अभिभावक यानि उनकी मां ने अवैध रूप से कस्टडी में लिया है।

इन्हीं टिप्पण‌ियों साथ पिता का दावा खारिज कर दिया गया।


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