यौन क्रिया को समझना एक बच्चे की समझ से बाहर, उसे सिखाया नहीं जा सकताः मद्रास हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में सजा बढ़ाई
मद्रास हाईकोर्ट ने एक नाबालिग बच्चे के यौन उत्पीड़न के मामले में एक व्यक्ति को दी गई सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि एक बच्चा जो यौन हमले का शिकार हुआ है, उसे सबूत देने के लिए सिखाया नहीं जा सकता है क्योंकि एक बच्चे के लिए यौन क्रिया को समझना उसकी समझ से बाहर होता है। कोर्ट ने सजा को भी तीन साल से बढ़ाकर सात साल कर दिया है।
जस्टिस आनंद वेंकटेश ने कहा कि एक बाल गवाह मोटे तौर पर दो श्रेणियों में आता है- एक जहां बच्चा घटना का गवाह होता है और दूसरा जहां बच्चा खुद पीड़ित होता है।
अदालत ने कहा,‘‘पहली श्रेणी के तहत आने वाले मामलों में, बच्चे को सिखाने या बहलाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है और इसलिए, उन मामलों में बच्चे के साक्ष्य से निपटने के दौरान न्यायालय को बहुत सावधान रहना चाहिए। हालांकि, ऐसे मामले जो दूसरी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, बच्चे को सिखाया नहीं जा सकता है क्योंकि यौन क्रिया को समझना बच्चे के लिए उसकी समझ से बाहर होता है। इसलिए, बच्चा घटना के बारे में तभी समझ पाएगा जब वह वास्तव में उससे गुजरा होगा।’’
कोर्ट ने यह भी कहा कि यही कारण है कि शीर्ष अदालतों ने बार-बार यह माना है कि यौन उत्पीड़न पीड़ितों के साक्ष्यों को और अधिक संवेदनशीलता के साथ निपटाया जाना चाहिए।
अदालत तिरुपुर जिले के सत्र न्यायाधीश द्वारा सुनाई गई सजा और दोषसिद्धि के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। सजा के खिलाफ दायर अपील के साथ ही राज्य ने सजा बढ़ाने की अपील भी की थी। सेशन कोर्ट ने आरोपी को तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी और 10000 हजार रुपए जुर्माना भरने का आदेश दिया था।
अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि अपीलकर्ता ने पीड़ित लड़की पर पेनेट्रेटिव सेक्सुअल एसॉल्ट किया था जो कि उसकी पड़ोसी थी और घटना के समय 5 वर्ष की थी। आरोपी ने अपील के दौरान तर्क दिया कि घटना की तारीख के बारे में संदेह था क्योंकि शिकायत और साक्ष्य में अलग-अलग तारीखें दी गई थी। उन्होंने कहा कि पुरानी रंजिश के चलते मामला बनाया गया है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि पीड़ित बच्ची की साक्ष्य देने की क्षमता को अदालत द्वारा उचित रूप से निर्धारित नहीं किया गया था।
अदालत ने कहा कि हालांकि घटना की तारीख में विसंगतियां थी,लेकिन डॉक्टरों की रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि घटना हुई थी। कहा, ‘‘इस अदालत के विचार में, घटना की तारीख में विसंगति वास्तव में मामले की जड़ तक नहीं जाती है।’’
साक्ष्य देने के लिए पीड़िता की क्षमता के संबंध में, अदालत ने कहा कि चूंकि कोई सटीक नियम नहीं थे, इसलिए यह न्यायाधीशों पर निर्भर है कि वे बुद्धि और ज्ञान की डिग्री तय करें जो एक बच्चे को एक सक्षम गवाह बनाती है।
‘‘निर्णयों के एक क्रम के माध्यम से, अब यह बहुत अच्छी तरह से तय हो गया है कि एक बाल गवाह की योग्यता का निर्धारण करने के लिए, न्यायाधीश को अपनी राय बनानी होगी। ऐसा करते समय, यह न्यायाधीश पर छोड़ दिया गया है कि वह किसी भी विधि को अपनाकर बाल गवाह की क्षमता की जांच कर सकता है और बुद्धि और ज्ञान की डिग्री की जांच करने के लिए कोई सटीक नियम निर्धारित नहीं किया गया है, जो एक बच्चे को एक सक्षम गवाह बना सके। एक बच्चा केवल उन मामलों में अक्षम हो जाएगा जहां न्यायालय का मानना है कि बच्चा प्रश्नों को समझने और सुसंगत और बोधगम्य तरीके से उनका जवाब देने में असमर्थ था।’’
वर्तमान मामले में, हालांकि बेंच ट्रायल कोर्ट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं थी, कोर्ट ने कहा कि पीड़िता को अदालत में बुलाने के लिए बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि वह अब बालिग हो गई है और उसकी मानसिक क्षमता बदल गई होगी।
झूठी शिकायत के आरोप के संबंध में, अदालत ने कहा कि बचाव पक्ष को जिरह के दौरान इसकी नींव रखनी थी।
‘‘हालांकि, बचाव पक्ष ने पीडब्ल्यू-1, पीड़ित लड़की के पिता से यह स्थापित करने के लिए एक भी सवाल नहीं किया कि पक्षकारों के बीच पहले से दुश्मनी थी। आरोपी व्यक्ति द्वारा इस तरह का बयान तब देने का प्रयास किया गया, जब उससे सीआरपीसी की धारा 313(1)(बी) के तहत पूछताछ की गई थी, इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि यह उसने खुदा कहा है और साक्ष्य दर्ज करने की प्रक्रिया के दौरान इसकी जांच नहीं की गई। पक्षकारों के बीच पुरानी दुश्मनी धारणा या अनुमान का विषय नहीं है और इसे आरोपी व्यक्ति द्वारा स्थापित किया जाना होता है।’’
अदालत ने कहा कि चूंकि अपराध पॉक्सो अधिनियम के लागू होने से पहले किया गया था, इसलिए आरोपी को दोषी करार भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (2) (एफ) के तहत दिया गया था। यह देखते हुए कि दी गई सजा आईपीसी की धारा 376 (1) के तहत प्रदान की गई न्यूनतम सजा से कम थी, अदालत ने कारावास को बढ़ाकर सात साल कर दिया।
अदालत ने कहा,‘‘जब किसी बच्चे का यौन शोषण किया गया हो, तो अदालतों को आरोपी के प्रति कभी भी नरमी नहीं दिखानी चाहिए और इसके साथ सख्ती और गंभीरता से निपटा जाना चाहिए। उपरोक्त चर्चाओं के आलोक में, ट्रायल कोर्ट द्वारा अभियुक्त को दी गई सजा में इस न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता है। तदनुसार, कारावास की अवधि को सात साल के कठोर कारावास तक बढ़ाया जा रहा है।’’
केस टाइटल- ए मुथुपंडी बनाम राज्य
साइटेशन- 2023 लाइवलॉ (एमएडी) 120
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