हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट दोहराया-सीआरपीसी की धारा 391 के तहत अतिरिक्त साक्ष्य के प्रावधान का विवेकपूर्ण उपयोग करें; प्रच्छन्न री-ट्रायल के खिलाफ चेतावनी दी

Update: 2023-04-12 13:11 GMT

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया है कि सीआरपीसी की धारा 391 के तहत शक्तियों का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए, न कि केवल पूछने के लिए, और अतिरिक्त साक्ष्य मामले को फिर से ट्रायल करने या आरोपों को बदलने का तरीका नहीं होना चाहिए।

जस्टिस ज्योत्सना रेवल दुआ ने कहा,

"आरोपी व्यक्तियों (प्रतिवादी संख्या 2 और 3) के बरी होने के पूरे 13 साल बाद ट्रायल समाप्त हो गया है। आवेदन में की गई प्रार्थना को अनुमति देने से अभियुक्तों के लिए बहुत पूर्वाग्रह पैदा होगा, क्योंकि यह वास्तव में फिर से मुकदमा चलाने के बराबर होगा।"

अपीलीय अदालत के उस आदेश के खिलाफ सुनवाई के दरमियान यह टिप्पणी की, जिसके संदर्भ में सीआरपीसी की धारा 391 के तहत शिकायतकर्ता के आवेदन को खारिज कर दिया गया था, जिसमें अतिरिक्त साक्ष्य के माध्यम से कुछ दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर रखने की मांग की गई थी।

इस मामले में याचिकाकर्ता भारतीय दंड संहिता की धारा 417, 466, 474 और 120-बी के तहत दर्ज प्राथमिकी में शिकायतकर्ता था। पूरी सुनवाई के बाद आरोपी को बरी कर दिया गया।

चूंकि राज्य ने फैसले को स्वीकार कर लिया, शिकायतकर्ता ने 2015 में बरी होने के खिलाफ अपील दायर की। दो साल बाद, शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 391 के तहत एक आवेदन दायर किया और अतिरिक्त साक्ष्य के माध्यम से कुछ दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर साबित करने के लिए आवेदन किया, जिसे अपीलीय अदालत ने खारिज कर दिया, और परिणामस्वरूप धारा 482 सीआरपीसी के तहत खंडपीठ के समक्ष चुनौती दी गई।

मामले पर फैसला सुनाने के लिए जस्टिस दुआ ने ब्रिगेडियर सुखजीत सिंह (सेवानिवृत्त) एमवीसी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 2019 में सुपीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था, 

"धारा 391(1) में मुख्य शब्द हैं "यदि यह अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है"। धारा 391(1) में प्रयुक्त शब्द "आवश्यक" का अर्थ अपील का निर्णय करने के लिए आवश्यक है। धारा 391 सीआरपीसी के तहत के तहत अतिरिक्त साक्ष्य देने की शक्ति न्याय को सुरक्षित करने के लिए अपीलीय अदालत द्वारा अपील के उचित निर्णय के उद्देश्य से है।"

पीठ ने इस प्रकार देखा कि अतिरिक्त साक्ष्य इस तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता है और न ही प्राप्त किया जाना चाहिए जिससे अभियुक्तों के लिए कोई पूर्वाग्रह पैदा हो और यह एक पुन: परीक्षण के लिए एक छ्द्म ना हो।

इसमें कहा गया है कि वर्ष 1998 में याचिकाकर्ता-शिकायतकर्ता के कहने पर एफआईआर दर्ज की गई थी और यदि मामले के निपटान के लिए दस्तावेज आवश्यक थे जैसा कि याचिकाकर्ता ने दावा किया है तो यह उस पर था कि वह इन सभी दस्तावेजों का खुलासा जांच के दौरान करे।

इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कि प्रतिवादियों ने 13 वर्षों तक मुकदमे का सामना किया था, पीठ ने कहा कि प्रार्थना करने में देरी के लिए आवेदन में कोई कारण नहीं बताया गया है और केवल यह उल्लेख किया गया है कि संदर्भित दस्तावेज याचिकाकर्ता के पास मौजूद नहीं थे। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने दस्तावेजों के अस्तित्व के बारे में पहले से जानकारी होने से भी इनकार नहीं किया है।

उक्त कारण से पीठ ने याचिका को आधारहीन पाया और उसे खारिज कर दिया।

केस टाइटल: केवल कृष्ण बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य

साइटेशन: 2023 लाइव लॉ (एचपी) 25

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