हिजाब मामला: क्या किसी धर्मनिरपेक्ष देश में सरकारी संस्थान में धार्मिक कपड़े पहने जा सकते हैं? सुनवाई के पहले दिन सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को हिजाब मामले में दिए गए कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई की। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने फैसले में स्कूलों और कॉलेजों में मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने पर प्रतिबंध को बरकरार रखा था।
इस मामले की सुनवाई जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने की।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने शुरुआत में मामले को नॉन मिसलेनीअस डे पर लेने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा "कई प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, न केवल संवैधानिक मुद्दे के बल्कि सामान्य महत्व के प्रश्न हैं" जिन पर बहस होगी और इस प्रकार विस्तृत प्रस्तुतियां होंगी।
उन्होंने कहा कि मिसलेनीअस डे पर कोर्ट रूम की भीड़भाड़ में किताबें लाना मुश्किल होता है। सीनियर एडवोकेट राजीव धवन ने भी कहा कि अदालत में बहुत भीड़ है।
हालांकि, अदालत ने मामले को शुरू करने पर जोर दिया और दोपहर 2 बजे सुनवाई शुरु हो गई।
एडवोकेट एजाज मकबूल ने मामले के गुण-दोष पर सुनवाई से पहले सुझाव दिया कि सभी दलीलों को एक मामले में संकलित किया जा सकता है, जिसे मुख्य मामले के रूप में निस्तारित किया जा सकता है।
पीठ ने इस पर सहमति जताई और कहा कि यह संकलन एक या दो दिन में पूरा किया जा सकता है।
पीठ को बताया गया कि कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा पारित अंतरिम आदेश के खिलाफ कुछ याचिकाएं दायर की गई थीं, जिन्हें याचिकाओं बैच में रखा गया है। पीठ ने कहा कि ऐसी याचिकाओं को निष्फल के रूप में निस्तारित किया जाएगा।
क्या हेडस्कार्फ़ पहनना आवश्यक धार्मिक प्रथा है?
सीनियर एडवोकेट राजीव धवन ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के अनुसार, एक संवैधानिक मुद्दे को संविधान पीठ के पास भेजा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे में बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल थीं और सवाल यह था कि क्या इन महिलाओं को ड्रेस कोड या सरकार के सामने झुकना चाहिए और क्या हेडस्कार्फ़ पहनना "आवश्यक धार्मिक प्रथा" है।
जस्टिस गुप्ता ने इस पर कहा कि स्कार्फ पहनना एक आवश्यक प्रथा हो सकती है या नहीं, सवाल यह हो सकता है कि क्या सरकार ड्रेस कोड को रेगुलेट कर सकती है।
सीनियर एडवोकेट धवन ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसे जज रहे, जिन्होंने तिलक, पगड़ी आदि पहने हैं। हालांकि, जस्टिस गुप्ता ने यह कहते हुए हस्तक्षेप किया कि 'पगड़ी' एक गैर-धार्मिक वस्तु है और शाही राज्यों में पहनी जाती थी।
उन्होंने कहा कि-
"मेरे दादाजी इसे वकालत करते हुए हुए पहनते थे। इसकी तुलना धर्म के साथ न करें ... हमारी प्रस्तावना कहती है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है। क्या आप यह कह सकते हैं कि किसी धर्मनिरपेक्ष देश में एक सरकारी संस्थान में धार्मिक कपड़े पहने जा सकते हैं? यह एक तर्क हो सकता है।"
सीनियर एडवोकेट धवन ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला "महत्वपूर्ण" होगा और यह दुनिया भर में देखा जाएगा क्योंकि कई सभ्यताओं में हिजाब पहना जाता है।
उन्होंने आगे तर्क दिया कि पहले यह सुझाव दिया गया था कि यूनिफॉर्म के रंग का ही हेडस्कार्फ़ पहना जा सकता है, लेकिन अब छात्रों से क्लास रूम में स्कार्फ हटाने के लिए कहा जा रहा है। उन्होंने इस बात पर भी रोशनी डाली कि इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के आदेश असंगत रहे हैं क्योंकि केरल हाईकोर्ट के एक आदेश में कहा गया है कि इसकी अनुमति है जबकि कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा नहीं है।
क्या ड्रेस कोड को रेगुलेट किया जा सकता है?
सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने आज मुख्य दलीलें पेश कीं। उनका मुख्य बिंदु यह था कि अदालत को मामले में व्यापक प्रश्नों में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि यह केवल एक संकीर्ण बिंदु पर तय किया जा सकता है कि क्या कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के तहत राज्य सरकार को यूनिफॉर्म निर्धारित करने की शक्ति है?
उडुपी पीयू कॉलेज के छात्रों से संबंधित याचिका के तथ्यों को बेंच को सुनाने के बाद, उन्होंने तर्क दिया कि-
"कर्नाटक शिक्षा अधिनियम क्या कहता है? क्या आप नियम बना सकते हैं और निर्देश दे सकते हैं और क्या वे निर्देश अधिनियम के अन्य प्रावधानों का उल्लंघन कर सकते हैं? यदि यह अधिनियम के आधार पर तय किया जा सकता है, तो व्यापक प्रश्नों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। ..कॉलेज विकास समिति की अधिनियम के अनुसार कोई कानूनी वैधता नहीं है। इसमें स्थानीय विधायक और राजनेता शामिल हैं।"
उन्होंने तर्क दिया कि जो मुद्दा उठा था वह यह था कि क्या कर्नाटक शिक्षा अधिनियम की धारा 133 (2) के अनुसार, छात्रों के लिए गवर्निंग बॉडी द्वारा तय यूनियफॉर्म पहनना अनिवार्य था। उन्होंने पीठ से पूछा कि क्या कोई संस्था किसी विशेष शैली की पोशाक पहनने के कारण किसी को कक्षा में बैठने से रोक सकता है?
उन्होंने कहा,
"क्या महिलाओं की शिक्षा को एक विशेष पोशाक न पहनने का आश्रित बनाया जा सकता है? ... क्या आप एक लड़की को बता सकते हैं, मुझे एक गलत शब्द का उपयोग करते हुए खेद है, एक वयस्क महिला को, कि शील (Modesty) की अवधारणा पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होगा और आप चुन्नी नहीं पहन सकती?"
जस्टिस गुप्ता ने इस तर्क के जवाब में कहा कि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग ड्रेस कोड की आवश्यकता होती है।
उन्होंने कहा,
"मुझे वह खबर याद है- एक महिला वकील जींस में आई थी और इस पर आपत्ति जताई गई थी कि आप जींस नहीं पहन सकतीं। लेकिन तकनीकी रूप से क्या महिला कह सकती है कि आप मुझे जींस पहनने के लिए नहीं रोक सकते ... यदि वह गोल्फ कोर्स जाती है, वहां का एक ड्रेस कोड है। क्या आप कह सकते हैं कि मैं वहां अपनी पसंद की ड्रेस पहन सकता हूं? ... कुछ रेस्तरां में, औपचारिक ड्रेस कोड होता है, कुछ में कैजुअल ड्रेस कोड होता है।"
इस पर सीनियर एडवोकेट हेगड़े ने कहा कि सब कुछ संदर्भ में आया हे और वर्तमान मामले में संदर्भ यह है कि समाज के एक कमजोर वर्ग के लिए शिक्षा तक पहुंच सशर्त हो रही है। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के प्रचार के दौरान ईश्वर चंद्र विद्यासागर, फातिमा शेख और सावित्री फुले द्वारा सामना किए गए समान विरोध का उदाहरण दिया।
उन्होंने कहा कि सवाल यह है कि क्या कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के अनुसार राज्य को यूनिफॉर्म निर्धारित करने की शक्ति है। इस पर जस्टिस गुप्ता ने कहा कि यदि कोई विशेष शक्ति नहीं होती तो अनुच्छेद 161 लागू होता।
कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 के प्रावधान
तर्कों को आगे बढ़ाते हुए सीनियर एडवोकेट हेगड़े ने अदालत का ध्यान कर्नाटक शिक्षा अधिनियम की धारा 39 की ओर दिलाया। धारा 39 किसी भी स्थानीय प्राधिकरण या किसी भी निजी शिक्षण संस्थान की शासी परिषद को किसी भी नागरिक को धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर प्रवेश से वंचित करने से रोकता है या; भारत के नागरिकों के किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले किसी भी प्रचार या अभ्यास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करने या शैक्षणिक संस्थान में उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वास का अपमान करने से रोकता है।
उन्होंने आगे अधिनियम की धारा 133 पर प्रकाश डाला जिसमें कहा गया है कि निर्देश देने की राज्य की शक्तियां अधिनियम के अन्य प्रावधानों और नियम बनाने की शक्ति के अधीन हैं। उन्होंने कहा कि ड्रेस कोड उन विषयों की श्रेणी में नहीं है जिन पर सरकार नियम बना सकती है।
सीनियर एडवोकेट हेगड़े ने अधिनियम के अन्य प्रावधानों का उल्लेख किया और कहा कि शैक्षणिक संस्थानों को कम से कम एक वर्ष पहले माता-पिता को यूनिफॉर्म में बदलाव के बारे में सूचित करना आवश्यक है और किसी भी निर्धारित यूनिफॉर्म को 5 साल तक नहीं बदला जा सकता था।
उन्होंने यह भी कहा कि सरकार द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम में यूनिफॉर्म निर्धारित करने की शक्ति शामिल नहीं है। उन्होंने तब कहा कि सरकारी आदेश में कहा गया है कि कोई व्यक्ति अपने धर्म को दर्शाने वाली यूनिफॉर्म नहीं पहन सकता है और इससे मुस्लिम महिलाओं को काफी नुकसान हुआ है।
इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया, "सरकारी आदेश नियम बनाने की शक्ति के तहत जारी नहीं किया जा सकता है और यह अधिनियम की धारा 7 और 39 (बी) और (सी) के मूल प्रावधानों के खिलाफ है।
नियम 11 के तहत भी निर्धारित यूनिफॉर्म धारा 39(सी) के जनादेश के अनुरूप होनी चाहिए....
जब विधायिका ने अधिनियम में यूनिफॉर्म के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं किया तो प्राथमिक शिक्षा के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वे उस तरीके को निर्धारित करते हैं, जिसमें यूनिफॉर्म बदली जा सकती है, फिर केवल एक सरकारी आदेश द्वारा जो विधायी पदानुक्रम में अधिनियम और नियमों के बाद आता है, नई अक्षमताओं को निर्धारित नहीं कर सकता है।"
उनके तर्क का सार यह था कि यूनिफॉर्म निर्धारित करने की शक्ति सरकार को नहीं दी गई थी और यदि कोई व्यक्ति यूनिफॉर्म पर अतिरिक्त चीज पहनता है तो भी यह यूनिफॉर्म का उल्लंघन नहीं होगा।
इधर, जस्टिस धूलिया ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि हिजाब एक धार्मिक प्रथा नहीं हो सकती है। उन्होंने कहा कि हेडस्कार्फ़ पहले से ही यूनिफॉर्म का हिस्सा था क्योंकि चुन्नी की अनुमति थी। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि चुन्नी अलग थी और उसकी तुलना हिजाब से नहीं की जा सकती थी, क्योंकि इसे कंधों पर पहना जाता था
स्कूल में अनुशासन
कर्नाटक राज्य की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने कहा कि यह मुद्दा बहुत सीमित है और अकेले स्कूल में अनुशासन से संबंधित है। इस पर जस्टिस गुप्ता ने पूछा- "हिजाब पहनने से स्कूल के अनुशासन का उल्लंघन कैसे होता है?"
कर्नाटक के एडवोकेट जनरल प्रभुलिंग नवदगी ने राज्य के रुख को विस्तार से बताते हुए कहा कि कुछ छात्राओं द्वारा हिजाब का विरोध शुरू करने के बाद छात्रों का एक और समूह भगवा शॉल पहनना चाहता था। इससे अशांति की स्थिति पैदा हो गई और इस पृष्ठभूमि में 5 फरवरी को सरकारी आदेश जारी किया गया।
उन्होंने कहा,
"राज्य बहुत सचेत रहा कि हम यूनिफॉर्म नहीं लिखेंगे। नियम 11 के अनुसार, संस्थानों द्वारा यूनिफॉर्म निर्धारित की जाती है। हमने संस्थानों को यूनिफॉर्म निर्धारित करने का निर्देश दिया है। कुछ संस्थानों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया है। उन प्रस्तावों को चुनौती नहीं दी गई है। यह सरकारी आदेश में है कि छात्रों के अधिकारों का उल्लंघन न करें। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हिजाब मत पहनो या हिजाब पहनो। हम किसी भी तरह से नहीं कहते हैं। हम केवल कहते हैं कि निर्धारित यूनिफॉर्म का पालन करें। सरकारी आदेश बहुत खुशी से नहीं लिखा गया है, लेकिन आदेश का उद्देश्य निर्धारित यूनिफॉर्म का पालन करना है।"
यह पूछे जाने पर कि क्या अल्पसंख्यक संस्थान में हिजाब की अनुमति होगी, उन्होंने कहा कि राज्य ने इसे संस्थान पर छोड़ दिया है। पीठ ने उनसे यह भी पूछा कि सरकारी कॉलेजों को लेकर सरकार का क्या रुख है।
उन्होंने कहा,
"कर्नाटक में हिजाब की अनुमति देने वाले इस्लामी प्रबंधन संस्थान हो सकते हैं। कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं है। हमने इसे कॉलेज विकास परिषद पर छोड़ दिया है और उनमें से कुछ जैसे उडुपी पीयूसी ने हिजाब की अनुमति नहीं देने का निर्णय लिया है।"
इसके साथ ही बेंच ने बुधवार को दोपहर 2 बजे सुनवाई जारी रखने का फैसला किया।
बैकग्राउंड
बेंच के समक्ष मामले में 23 याचिकाओं का एक बैच सूचीबद्ध किया गया है। उनमें से कुछ मुस्लिम छात्राओं के लिए हिजाब पहनने के अधिकार की मांग करते हुए सीधे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर रिट याचिकाएं हैं। कुछ अन्य विशेष अनुमति याचिकाएं हैं जो कर्नाटक हाईकोर्ट के 15 मार्च के फैसले को चुनौती देते हुए दायर की गई हैं, जिसमें हाईकोर्ट ने हिजाब प्रतिबंध को बरकरार रखा था।
मामले की पिछली सुनवाई में याचिकाकर्ताओं ने मामले को दो सप्ताह के लिए स्थगित करने का अनुरोध किया था। हालांकि, अदालत ने मौखिक रूप से देखा था कि वह "फोरम शॉपिंग" की अनुमति नहीं देगी और कर्नाटक राज्य को नोटिस जारी किया।
कर्नाटक के हाईकोर्ट द्वारा पारित 15 मार्च के फैसले के खिलाफ एसएलपी दायर की गई है, जिसमें 05.02.2022 के सरकारी आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसने याचिकाकर्ताओं और ऐसी अन्य महिला मुस्लिम छात्रों को अपने प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में हेडस्कार्फ़ पहनने से प्रभावी रूप से प्रतिबंधित कर दिया था।
चीफ जस्टिस रितुराज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा दीक्षित और जस्टिस जेएम खाजी की हाईकोर्ट की एक पूर्ण पीठ ने कहा कि महिलाओं द्वारा हिजाब पहनना इस्लाम की एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है। पीठ ने आगे कहा कि शैक्षणिक संस्थानों में यूनिफॉर्म ड्रेस कोड का प्रावधान याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
केस टाइटल : फातिमा बुशरा बनाम कर्नाटक राज्य WP(c) 95/2022 और अन्य जुड़े मामले