सीआरपीसी की धारा 125-विवादित पितृत्व के मामलों में दावे की सत्यता सुनिश्चित होने तक बच्चे के भरण-पोषण देने में इंतज़ार किया जा सकता है : जेएंडके एंड एल हाईकोर्ट

Update: 2022-08-16 13:26 GMT

J&K&L High Court

जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया है कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक याचिका पर विचार करने वाले मजिस्ट्रेट के लिए नाबालिग बच्चे को दिया जाने वाले भरण-पोषण एक सर्वाेपरि विचार होना चाहिए, लेकिन जब एक बच्चे के संबंध में गंभीर रूप पितृत्व विवादित (Disputed Paternity) हो तो पहले दावों की सत्यता का पता लगाए बिना एक मजिस्ट्रेट के लिए बच्चे के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तय करना विवेकपूर्ण नहीं होगा।

जस्टिस संजय धर की पीठ एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ता, एक नाबालिग ने अपनी मां के माध्यम से जम्मू-कश्मीर सीआरपीसी की धारा 488 ( सीआरपीसी की धारा 125 के साथ समान सामग्री) के तहत चल रही कार्यवाही में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी थी। मजिस्ट्रेट ने उस दीवानी वाद का परिणाम आने तक मामले की कार्यवाही स्थगित कर दी है जिसमें बच्ची के पितृत्व पर सवाल उठाया गया है।

याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि वर्ष 2010 में जब प्रतिवादी जम्मू एंड कश्मीर सरकार में वित्त सचिव का पद संभाल रहा था, उसने याचिकाकर्ता की मां के साथ संबंध बनाए, इस्लाम धर्म अपनाया और याचिकाकर्ता की मां के साथ विवाह कर लिया, जिसके बाद बच्चे का जन्म 12.04.2011 को हुआ।

उसके आवेदन में यह भी आरोप लगाया गया कि अक्टूबर, 2012 के महीने में प्रतिवादी को केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्त किया गया था जिसके बाद प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता और उसकी मां को अकेले छोड़  दिया। आगे यह भी आरोप लगाया गया है कि 01.04.2013 को याचिकाकर्ता अपनी मां के साथ लखनऊ में प्रतिवादी के पैतृक स्थान पर गई, जहां उन्हें पता चला कि प्रतिवादी पहले से ही एक विवाहित व्यक्ति है जिसकी पत्नी और दो बच्चे हैं।

यह भी दलील दी गई कि याचिकाकर्ता और उसकी मां ने प्रतिवादी के खिलाफ घोषणा और निषेधाज्ञा के लिए एक मुकदमा दायर किया, जो कि प्रथम अतिरिक्त मुंसिफ, श्रीनगर के न्यायालय के समक्ष निपटान के लिए लंबित है। इन आधारों पर याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी से 30,000 रुपये मासिक भरण-पोषण की भी मांग की।

रिकॉर्ड  से यह भी खुलासा हुआ है कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता सेविवाह करने के आरोपों का खंडन करते हुए उक्त याचिका का विरोध किया और दावा किया है कि याचिकाकर्ता बच्चे की मां केवल उसे ब्लैकमेल करने और एक प्रतिष्ठित लोक सेवक के रूप में उसकी स्वच्छ छवि को खराब करने की कोशिश कर रही है।

पीठ ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद माना कि दो समवर्ती कार्यवाहियों की पेंडेंसी, जिसमें यह मुद्दा तय किया जाना चाहिए कि याचिकाकर्ता की मां प्रतिवादी की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी है या नहीं और याचिकाकर्ता बच्चे की मां और प्रतिवादी के बीच विवाह के संबंध में दीवानी वाद में प्रथम दृष्टया, दस्तावेजी सबूत के अभाव में, दीवानी मुकदमे का परिणाम आने तक भरण-पोषण की कार्यवाही के निर्णय को स्थगित करना उचित है। इसी आदेश को पुनरीक्षण याचिका के जरिए पीठ के समक्ष चुनौती दी गई।

याचिकाकर्ता के एडवोकेट अब्दुल मनन डार ने अन्य बातों के साथ-साथ इस आधार पर आदेश को चुनौती दी है कि याचिकाकर्ता बच्चे को तब तक भरण-पोषण पाने इंतजार करने के लिए नहीं कहा जा सकता, जब तक कि सिविल सूट में उसके पितृत्व के मुद्दे का निर्णय नहीं किया जाता, क्योंकि ऐसा करने से वह तत्काल भरण पोषण से वंचित हो जाएगी। एडवोकेट मनन ने यह भी तर्क दिया कि रिकॉर्ड पर ऐसी सामग्री है, जो प्रथम दृष्टया यह सुझाव देती है कि याचिकाकर्ता की मां और प्रतिवादी के बीच संबंध थे और प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता के पक्ष में बैंक हस्तांतरण के माध्यम से कुछ भुगतान किए हैं।

जस्टिस धर ने कहा कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से पता चलता है कि याचिकाकर्ता की मां ने 12.04.2011 को एक बच्ची का जन्म दिया और जबकि एक जन्म प्रमाण पत्र में बच्चे का नाम रिजा जान और पिता का नाम मिस्टर इदरीस बशीर जबरी दिखाया गया है, जबकि दूसरे जन्म प्रमाण पत्र में बच्ची का नाम रायशा और पिता के रूप में प्रतिवादी का नाम लिखा गया है।

जन्म प्रमाण पत्र (दिनांक 27.05.2011) को बच्चे के जन्म के डेढ़ महीने के भीतर जारी किया गया है और इसमें निहित विवरण एक वर्ष के भीतर प्रस्तुत की गई सहज जानकारी के आधार पर घटनाओं के नियमित क्रम में दर्ज किए गए हैं, जैसा कि जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 13(1)(2) में निहित प्रावधानों में उल्लिखित है। तदनुसार साक्ष्य अधिनियम की धारा 114(ई) में निहित प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए, उक्त प्रमाण पत्र में दर्ज किए गए विवरणों के सही होने का अनुमान है। दूसरी ओर, जन्म प्रमाण पत्र (दिनांक 01.09.2014),जिस पर याचिकाकर्ता द्वारा भरोसा किया जा रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 13 (3) में निहित प्रावधानों का सहारा लेते हुए, जन्म की घटना के तीन साल से अधिक समय के बाद न्यायालय के निर्देशों के अनुसार जारी किया गया है। इसलिए, उक्त प्रमाण पत्र की सामग्री की शुद्धता के संबंध में तब तक कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है, जब तक कि इसका समर्थन करने के लिए मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य पेश नहीं किए जाते हैं।

विवाद के संबंध में कानून पर आगे चर्चा करते हुए पीठ ने कहा कि इस प्रस्ताव पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि एक नाबालिग बच्ची के भरण-पोषण का अनुदान सर्वाेपरि होना चाहिए, लेकिन चूंकि बच्ची का पितृत्व गंभीर रूप से विवादित है और यह सुझाव देने के लिए प्रथम दृष्टया कोई सामग्री नहीं है कि प्रतिवादी बच्ची का पिता है, मजिस्ट्रेट के लिए यह विवेकपूर्ण नहीं होगा कि वह याचिकाकर्ता के दावे की सत्यता का पता लगाए बिना प्रतिवादी को बच्ची के भरण-पोषण के दायित्व के साथ बांध दे।

जस्टिस धर ने कहा कि,

''याचिकाकर्ता के पितृत्व के संबंध में एक गंभीर विवाद है और रिकॉर्ड पर मौजूद दस्तावेजों से प्रथम दृष्टया पता चलता है कि याचिकाकर्ता की मां ने एक मिस्टर इदरीस बशीर के साथ विवाह किया था। वहीं याचिकाकर्ता की मां और उक्त व्यक्ति के बीच विवाह के विघटन के 280 दिनों के भीतर ही याचिकाकर्ता का जन्म हुआ था। इसलिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 की धारणा भी वर्तमान मामले की ओर आकर्षित होती है।''

याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि इस भारी रिकॉर्ड को देखते हुए और जब तक याचिकाकर्ता, आवश्यक और ठोस सबूत पेश नहीं करती है,मजिस्ट्रेट के लिए उसके पक्ष में भरण-पोषण का आदेश पारित करना संभव नहीं हो सकता है और इसलिए मजिस्ट्रेट ने दीवानी वाद में मामले का निर्णय होने तक याचिका पर आगे विचार करने को उचित रूप से स्थगित कर दिया है।

केस टाइटल- रायशा बनाम सैयद सुधांशु पांडे

साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 100

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