पैरोल के लिए कोई कैदी एफआईआर के सह-दोषियों के साथ समानता का दावा नहीं कर सकता : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा पुलिस और डीएम की व्यक्तिपरक संतुष्टि ज़रूरी
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने माना है कि " पैरोल पर रिहा होने के लिए कोई कैदी या अपराधी ''एफआईआर में अपने सह-दोषियों के साथ समानता का दावा नहीं कर सकता। क्योंंकि अपराध में प्रत्येक अभियुक्त द्वारा निभाई गई भूमिका एक समान नहीं हो सकती।''
न्यायमूर्ति एचएस मदान की पीठ ने कहा कि पैरोल पर विचार करते समय स्वतंत्र रूप से उन अन्य मामलों के अपराधों की प्रकृति और गंभीरता का भी मूल्यांकन किया जाता है, जिनमें ऐसा आरोपी या दोषी शामिल है। ताकि इस बात का निर्धारण किया जा सके कि कहीं ऐसा आरोपी पैरोल पर रिहा होने के बाद फिर से अपराध में लिप्त तो नहीं हो जाएगा।
पीठ ने कहा कि किसी दोषी को पैरोल पर रिहा करने के लिए पुलिस अधिकारियों और संबंधित जिला कलेक्टर का ''आत्म या व्यक्तिपरक संतुष्टि'' पर पहुंचना जरूरी है।
एकल पीठ इस मामले में उस आवेदन पर विचार कर रही थी,जिसमें जिला कलेक्टर द्वारा पारित 9 अप्रैल के आदेश को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों/सरकारी अधिसूचना के मद्देनजर पैरोल पर रिहा करने की मांग की गई थी। इन दिशा-निर्देश के तहत कहा गया था कि महामारी के चलते उन कैदियों को पैरोल पर रिहा कर दिया कर दिया जाना चाहिए,जो सात साल तक की सजा काट रहे हैं।
याचिकाकर्ता को 10 मई 2019 को दर्ज एक प्राथमिकी के संबंध में दोषी करार दिया गया था। यह प्राथमिकी आईपीसी की धारा 332 (स्वेच्छा से लोक सेवक को चोट पहुंचाना), 353 (लोक सेवक के खिलाफ हमला/ आपराधिक बल का प्रयोग करना), 186 (लोक सेवक की ड्यूटी के निर्वहन में बाधा पहुंचाना) , 147 ( दंगा), 149 (गैरकानूनी रूप से एकत्रित होना) और 333 (लोक सेवक को गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत दर्ज की गई थी। इस मामले में कोर्ट ने याचिकाकर्ता को छह साल कैद की सजा दी थी। इस सजा के खिलाफ उसकी अपील हाईकोर्ट में लंबित है। याचिकाकर्ता मामले में उसकी गिरफ्तारी की तारीख के बाद से सलाखों के पीछे है और उसे जमानत या पैरोल पर रिहा नहीं किया गया है।
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि
''याचिकाकर्ता ने पैरोल के लिए आवेदन किया था, लेकिन कलेक्टर ने यह कहते हुए उसे पैरोल देने से इनकार कर दिया कि उसके खिलाफ एक अन्य मामला लंबित है और वह उस मामले के गवाहों को प्रभावित कर सकता है। याचिकाकर्ता के अनुसार, उस मामले में अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान पूरे हो चुके हैं। इसके अलावा, उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर में सात लोगों को दोषी ठहराया गया था जिनमें से पांच को पैरोल दी जा चुकी है। इतना ही नहीं पैरोल पर रिहा होने वाले दोषियों में से (...) नामक एक दोषी के खिलाफ उससे भी अधिक मामले लंबित थे और फिर भी उसे पैरोल दे दी गई थी।''
न्यायमूर्ति मदान ने संबंधित पुलिस उपाधीक्षक के जवाब पर भी विचार किया। जिसमें बताया गया था कि याचिकाकर्ता ने छह सप्ताह के लिए पैरोल देने की मांग की थी। उसके इस आवेदन पर स्थानीय पुलिस द्वारा जांच की गई थी और यह पाया गया था कि याचिकाकर्ता के खिलाफ इसी तरह के एक अन्य मामले में भी ट्रायल चल रही है। ऐसे में अगर उसे पैरोल पर रिहा कर दिया गया तो वह गवाहों को धमका सकता है या उनको प्रभावित कर सकता है। वहीं अन्य अपराधों में लिप्त हो सकता है। इसलिए पैरोल के लिए याचिकाकर्ता के नाम की अनुशंसा या सिफारिश नहीं की गई थी।
जिसके बाद पीठ इस निष्कर्ष पर पहुंची कि कलेक्टर द्वारा 9 अप्रैल 2020 को पारित आदेश ''काफी विस्तृत और सुविचारित है'' और इसमें ''किसी भी तरह की कोई अवैधता या दुर्बलता नहीं है।''
पीठ ने कहा कि-
''आदेश में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि 30 मार्च 2020 को इस न्यायालय के माननीय जस्टिस राजीव शर्मा की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त समिति की एक बैठक की गई थी और पैरोल पर रिहाई के लिए जेल के कैदियों के मामलों पर विचार किया गया था। याचिकाकर्ता छह साल तक के कारावास की सजा काट रहा था और अन्य मामलों में शामिल था, इसलिए उसे पैरोल पर रिहा नहीं किया गया था।''
याचिका को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति मदान ने कहा कि ''याचिकाकर्ता एफआईआर के अपने सह-दोषियों के साथ समानता या पैरिटी का दावा कर रहा है। लेकिन इस तरह के कारण के लिए कोई समानता नहीं हो सकती है।'' साथ ही यह भी कहा कि अपराध में प्रत्येक अभियुक्त द्वारा निभाई गई भूमिका बिल्कुल एकसमान नहीं हो सकती है।