शादी का झूठा वादा: केरल हाईकोर्ट ने रेप केस खारिज करने से इनकार किया, कहा- आरोपी ने सिर्फ यौन संबंधों के लिए सहमति दी
केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में शादी के झूठे वादे के तहत एक महिला के साथ कथित रूप से बलात्कार करने के आरोप में एक व्यक्ति के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को इस आधार पर रद्द करने से इनकार कर दिया कि तथ्य प्रथम दृष्टया स्थापित करते हैं कि उसने कभी भी उससे शादी करने का इरादा जाहिर नहीं किया था।
जस्टिस के बाबू ने भारतीय दंड संहिता की धारा 90 का अवलोकन किया, जो अभिव्यक्ति 'सहमति' को संदर्भित करती है, और नोट किया कि धारा 375 के प्रयोजनों के लिए, सहमति के लिए न केवल कृत्य के महत्व और नैतिक गुण के ज्ञान के आधार पर बुद्धि के अभ्यास के बाद स्वैच्छिक भागीदारी आवश्यक होती है, बल्कि प्रतिरोध और सहमति के बीच विकल्प का पूरी तरह से प्रयोग करने के बाद ऐसा किया जाता है।
कोर्ट ने कहा कि सहमति थी या नहीं, यह केवल सभी प्रासंगिक परिस्थितियों को सावधानीपूर्वक समझने के बाद ही लगाया जा सकता है।
बलात्कार और सहमति से यौन संबंध के बीच के अंतर स्पष्ट करते हुए कोर्ट ने कहा,
"बलात्कार और सहमति से यौन संबंध के बीच स्पष्ट अंतर है और अदालत को बहुत ही सावधानी से जांच करनी चाहिए कि क्या अभियुक्त वास्तव में पीड़िता से शादी करना चाहता था, या उसकी दुर्भावनापूर्ण मंशा थी, और केवल अपनी वासना को पूरा करने के लिए इस आशय का झूठा वादा किया था, क्योंकि बाद का कृत्य धोखा या छल के दायरे में आता है।
एक वादे को तोड़ने और झूठे वादे को पूरा न करने के बीच अंतर है। इस प्रकार, अदालत को यह जांच करनी चाहिए कि क्या शुरुआत में अभियुक्त ने शादी का झूठा वादा किया था; और क्या यौन संबंध की प्रकृति और परिणामों को पूरी तरह से समझने के बाद इसमें शामिल होने की सहमति दी गई थी"।
जस्टिस के बाबू ने प्रमोद सूर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ध्यान दिया, जिसमें न्यायालय ने यह पता लगाने के लिए दो प्रस्तावों को संक्षेप में प्रस्तुत किया था कि क्या 'सहमति' शादी करने के वादे से पैदा 'तथ्य की गलत धारणा' से बिगड़ गई थी, यानी, (1) शादी का वादा झूठा होना चाहिए, जो बुरे इरादे से दिया गया हो और दिए जाने के समय इसका पालन करने का कोई इरादा न हो। (2) झूठा वादे को तत्काल महत्व होना चाहिए, या यौन क्रिया में संलग्न होने के महिला के फैसले से सीधा संबंध होना चाहिए।
मामले के तथ्यों के अनुसार, याचिकाकर्ता और पीड़िता सहकर्मी थे। जब याचिकाकर्ता ने पीड़िता से कहा कि वह उसे पसंद करता है और उससे शादी करना चाहता है।
जब याचिकाकर्ता ने बार-बार उससे शादी के लिए कहा तो पीड़िता उससे शादी करने को तैयार हो गई। दोनों ने साथ में कई जगहों की यात्रा भी की थी। यह आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने पीड़िता के साथ यौन दुर्व्यवहार किया और उसके सोने के गहने हड़प लिए।
आरोप है कि याचिकाकर्ता ने पीड़िता के साथ दुष्कर्म किया और शादी का झूठा वादा कर उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाए। हालांकि, बाद में उसने पीड़िता से शादी करने से इनकार कर दिया।
इस प्रकार अदालत ने यह पाया कि प्रथम दृष्टया तथ्य यह स्थापित करते हैं कि याचिकाकर्ता का कभी भी पीड़िता से शादी करने का इरादा नहीं था और उसने केवल उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए उसकी सहमति प्राप्त की, जिससे यह 'बलात्कार' की परिभाषा के अंतर्गत आता है।
कोर्ट ने कहा,
आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की शक्ति का संयम से और सावधानी के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए, और वह भी दुर्लभतम मामलों में। इसमें कहा गया है कि न्यायालय एफआईआर में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता या अन्यथा के बारे में पूछताछ नहीं कर सकता, जब तक कि आरोप स्पष्ट रूप से बेतुके और स्वाभाविक रूप से असंभव न हों, ताकि कोई भी विवेकपूर्ण व्यक्ति कभी भी इस तरह के निष्कर्ष पर न पहुंच सके।
अदालत ने कहा, "अदालत की असाधारण और अंतर्निहित शक्तियां अदालत को उसकी सनक के अनुसार कार्य करने के लिए एक मनमाना अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं करती हैं।"
अदालत ने कहा, यहां तक कि असाधारण मामलों में भी, हाईकोर्ट केवल उन दस्तावेजों पर गौर कर सकता है, जो अभेद्य और कानूनी रूप से प्रासंगिक साक्ष्य में अनुवादित किया जा सकता है।
अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए उत्तरदायी नहीं है, और तदनुसार, याचिका को खारिज कर दिया।
केस टाइटल: केविन सिमसन बनाम केरल राज्य व अन्य।
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (केरल) 145