"यह उदाहरण है कि कैसे निर्णय नहीं लिखा जाना चाहिए": पटना हाईकोर्ट ने दहेज हत्या मामले में मृत्युदंड की सजा रद्द की
पटना हाईकोर्ट ने दहेज हत्या मामले में निचली अदालत के मृत्युदंड की सजा के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि यह उदाहरण है कि कैसे निर्णय नहीं लिखा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को आरोपियों के आचरण के संबंध में अपने फैसले में निंदात्मक और अपमानजनक टिप्पणी करने से बचना चाहिए।
न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार सिंह और न्यायमूर्ति अरविंद श्रीवास्तव की खंडपीठ ने कहा कि,
"विचाराधीन निर्णय इस बात का उदाहरण है कि निर्णय कैसे नहीं लिखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि न्यायालयों और न्यायाधीशों को साक्ष्य का निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिए और न्यायालयों और न्यायाधीशों को अपराध की भयावहता से प्रभावित नहीं होना चाहिए। न्यायाधीश द्वारा अपराध और आरोपी के चरित्र का निर्णय समाज के कामकाज के अपने स्वयं के कल्पित मानदंडों से अप्रभावित होते हुए किया जाना चाहिए।"
पीठ ने इसके अलावा कहा कि,
"तर्क वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से एक न्यायाधीश अपने निष्कर्ष पर पहुंचता है। सभी निष्कर्ष विधिवत दर्ज किए गए कारणों से समर्थित होने चाहिए। तथ्य की खोज कानूनी गवाही पर आधारित होनी चाहिए और कानूनी आधार पर आधारित होनी चाहिए। तथ्य की खोज और निर्णय संदेह, काल्पनिक और अनुमानों पर आधारित नहीं होना चाहिए। इसके अलावा एक न्यायाधीश को पक्षकारों के आचरण पर टिप्पणी करते समय शांत और संयमित भाषा का उपयोग करने के लिए सावधान रहने की आवश्यकता होती है। न्यायाधीश को कोई भी व्यक्ति जिसका मामला उसके समक्ष विचाराधीन हो उसके खिलाफ अपमानजानक टिप्पणियां करने से बचना चाहिए ।"
पीठ 26 मार्च 2019 को दोषसिद्धि और सजा के आदेश को चुनौती देने वाली अपीलों के एक समूह से निपट रही थी, जिसमें एक मृतक पत्नी के पति और भाभी को निचली अदालत ने दहेज हत्या के मामले में दोषी ठहराया था।
पीठ ने सुनवाई के समय कहा कि ट्रायल कोर्ट को किसी भी व्यक्ति के खिलाफ निंदात्मक और अपमानजनक टिप्पणियों के इस्तेमाल से बचना चाहिए, जिसका मामला उसके समक्ष विचाराधीन हो।
कोर्ट ने कहा कि निर्णय में त्रुटि में शामिल होने से पक्षपात नजर आता है।पक्षपात वाली सोच फिर जैविक और सामाजिक रूप से विकसित क्षमताओं के आधार पर प्रोटोटाइप के लिए कारण श्रृंखला में फिट हो जाता है; सामाजिक दबाव , व्यक्तिगत प्रेरणा और भावनाएं। निर्णय लेने में एक न्यायाधीश को उपलब्ध घटनाओं की श्रृंखला के आधार पर सहज / प्रतिबिंबित परिणाम से बचने और निर्णय लेने महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता होती है, अन्यथा न्यायाधीश घटनाओं की श्रृंखला के बीच भ्रमपूर्ण संबंध बनाने के लिए प्रेरित होता है और उचित निर्णय नहीं दे पाता है।
कोर्ट ने आगे कहा कि निर्णय लेने के लिए एक न्यायाधीश की प्रेरणा और संज्ञानात्मक क्षमता के एक निश्चित स्तर की आवश्यकता होती है। एक न्यायाधीश के एक अच्छी सोच के साथ-साथ अपने संज्ञानात्मक स्थान पर कब्जा करने वाले उपलब्ध पूर्वाग्रहों के आत्म-बोध के साथ एक न्यायाधीश को अनुमान लगाने से बचना चाहिए और एक अधिक संतुलित और तर्कसंगत परिणाम के लिए विकृत सोच से बचना चाहिए।
कोर्ट ने मामले के तथ्यों और निचली अदालत के आदेश का विश्लेषण करते हुए कहा कि आश्चर्यजनक रूप से फैसले के पैरा 43 में ट्रायल कोर्ट ने माना कि आईपीसी की धारा 306 के तहत मामला नहीं बनता है। आरोप में परिवर्तन के बाद चूंकि आईपीसी की धारा 306 के तहत कोई आरोप नहीं था, इसलिए कोई मामला नहीं बनता और इसलिए ट्रायल कोर्ट आईपीसी की धारा 306 के संबंध में इस तरह के निष्कर्ष दर्ज नहीं कर सकता है।
कोर्ट ने देखा कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे मकसद को साबित करने में पूरी तरह से विफल रहा है कि यह एक दहेज हत्या का मामला है। अदालत ने कहा कि कानूनी रूप से स्वीकार्य सबूतों का अभाव और निचली अदालत ने इस नैतिक आधार अपीलकर्ताओं को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया है क्योंकि पत्नी की अपने ससुराल में मृत्यु हो गई थी।
कोर्ट ने कहा कि पूर्वगामी चर्चाओं के मद्देनजर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि ट्रायल कोर्ट के निर्णय और आदेश को कानूनी रूप से कायम नहीं रखा जा सकता है। परिणामस्वरूप दिनांक 26.03.2019 के दोषसिद्धि के निर्णय और दिनांक 29.03.2019 को सजा के आदेश को रद्द किया जाता है।
कोर्ट ने निर्देश दिया कि अपीलकर्ताओं अर्थात नसरुद्दीन मियां @ लालू @ नसीरुद्दीन अहमद और सलामु नेशा @ सलामुन नेसा की किसी अन्य मामले में आवश्यकता न हो तो उन्हें तुरंत रिहा किया जाए।
कोर्ट ने अपीलों की अनुमति देते हुए निचली अदालत द्वारा सीआरपीसी की धारा 366 के तहत किए गए संदर्भ को रद्द कर किया।
केस का शीर्षक: बिहार राज्य बनाम नसरुद्दीन मियां