तलाक कानून | पति या पत्नी के अवैध संबंधों के आरोपों को याचिका में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि जीवनसाथी के अवैध संबंधों के आरोपों को अदालत की कल्पना पर नहीं छोड़ा जा सकता है। ऐसे आरोप स्पष्ट होने चाहिए।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13ए के तहत न्यायिक अलगाव की डिक्री देते हुए, न्यायालय ने कहा, “अवैध संबंध के अस्तित्व का अनुमान लगाने के लिए अदालत की कल्पना पर यह नहीं छोड़ा जाना चाहिए कि पक्ष आरोप के माध्यम से क्या कहना चाहते होंगे....अवैध संबंध होने का आरोप स्पष्ट होना चाहिए।”
जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस शिव शंकर प्रसाद की पीठ ने कहा कि विवाह के पक्षों के बीच छोटे विवादों या घटनाओं को क्रूरता नहीं माना जा सकता है। यदि अदालतें ऐसी घटनाओं को क्रूरता के घटक के रूप में मानती हैं तो कई विवाह विघटन के खतरे में पड़ जाएंगे।
पृष्ठभूमि
मामले में दोनों पक्षों ने 2013 में शादी की थी। दोनों पक्षों ने अपनी शादी के नॉन-कंज्यूमेशन के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराया। जुलाई 2014 तक दोनों एक साथ रहे, उसके बाद वे एक दिन भी साथ नहीं रहे। अपीलकर्ता/वादी पति ने इस आधार पर क्रूरता का आरोप लगाते हुए तलाक की मांग की कि प्रतिवादी-पत्नी ने शादी को जारी रखने से इनकार कर दिया।
यह आरोप लगाया गया कि पत्नी ने अपीलकर्ता के माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार किया और उनके साथ मारपीट भी की। इसके अलावा, आरोप लगाए गए कि उसने भीड़ को अपीलकर्ता पर चोर होने का आरोप लगाते हुए उसका पीछा करने और हमला करने के लिए उकसाया था। उन्होंने दहेज मांगने का आरोप लगाते हुए आपराधिक मामला भी दर्ज कराया था। प्रतिवादी-पत्नी ने यह भी आरोप लगाया कि अपीलकर्ता-पति का उसकी भाभी के साथ अवैध संबंध था।
अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, कोर्ट नंबर 2, गाजियाबाद ने कहा कि हालांकि यह दोनों पक्षों का मामला है कि उनके बीच विवाह कंज्यूमेट हो गया है, लेकिन प्रतिवादी पर दोष नहीं लगाया जा सकता है। यह भी देखा गया कि प्रतिवादी-पत्नी ने अपीलकर्ता-पति से मिलने की कोशिश की थी, हालांकि, उसे उससे मिलने से रोका गया था। प्रतिवादी-पत्नी के आदेश पर अपीलकर्ता-पति का पीछा करने वाली भीड़ के संबंध में एक घटना विवादित थी।
अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, कोर्ट नंबर 2, गाजियाबाद ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत अपीलकर्ता द्वारा शुरू किए गए तलाक के मामले की कार्यवाही को खारिज कर दिया। इसे हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी।
उच्च न्यायालय की टिप्पणियां
अदालत ने कहा कि भीड़ अपने आप अपीलकर्ता-पति और उसके परिवार का पीछा नहीं कर सकती थी और उन्हें बिना किसी घटना के पुलिस को सौंप सकती थी।
कोर्ट ने कहा,
“यह ध्यान देने योग्य बात है कि ऐसा आचरण परिवार के सदस्यों के भीतर सामान्य आचरण नहीं हो सकता है। केवल शर्मिंदगी पैदा करने के उद्देश्य से झूठे आरोप पर भीड़ को उकसाना कभी भी सामान्य आचरण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वहीं, न तो कोई औपचारिक गिरफ्तारी हुई और न ही इस तरह के झूठे आरोप के लिए कोई एफआईआर दर्ज कराई गई है. इस प्रकार, यह क्रूरता के उन तत्वों को पूरा नहीं कर सकता है जो तलाक की डिक्री देने के प्रयोजनों के लिए स्थापित किए जाने आवश्यक हैं।
न्यायालय ने कहा कि यदि छोटी-छोटी घटनाओं और विवादों को क्रूरता के घटकों के रूप में माना जाता है, तो कई विवाह जिनमें रिश्ते अपने सबसे अच्छे रूप में नहीं हैं, भंग हो सकते हैं।
न्यायालय ने माना कि निचली अदालत के समक्ष पेश किए गए सीमित साक्ष्यों के अनुसार, प्रतिवादी-पत्नी द्वारा लगाए गए क्रूरता के आरोप झूठे प्रतीत होते हैं। तदनुसार, उन्हें क्रूरता के घटक के रूप में नहीं माना जा सकता है।
अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता-पति और उसकी भाभी के बीच अवैध संबंध का अनुमान इस तथ्य से नहीं लगाया जा सकता है कि वह उस कमरे में सोता था जिसमें उसकी भाभी अपने बच्चों के साथ सोती थी। न्यायालय ने कहा कि अवैध संबंध का आरोप स्पष्ट रूप से लगाया जाना चाहिए और इसे न्यायालय की कल्पना पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
न्यायालय ने माना कि निचली अदालत को अधिनियम की धारा 13ए के तहत वैकल्पिक राहत देने पर विचार करना चाहिए था, जो इस बात पर विचार करते हुए न्यायिक अलगाव की डिक्री प्रदान करता है कि दोनों पक्षों 9 वर्षों तक न तो साथ रहे और न ही अपनी शादी कंज्यूमेट की। न्यायालय ने माना कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए आवेदन के अभाव में, निचली अदालत को न्यायिक अलगाव का आदेश देना चाहिए था।
इस प्रकार, न्यायालय ने अपीलकर्ता-पति को न्यायिक अलगाव का आदेश दिया।
केस टाइटलः रोहित चतुर्वेदी बनाम श्रीमती नेहा चतुर्वेदी [FIRST APPEAL No. - 295 of 2020]