दिल्ली हाईकोर्ट ने लाॅकडाउन के कारण किराए पर रोक लगाने की मांग को किया खारिज, भुगतान की तारीख को आगे बढ़ाने की दी अनुमति
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि किराएदार प्राकृतिक आपदा या फोर्स मेज्योर का आह्वान करते हुए लाॅकडाउन के कारण किराए पर रोक लगाने की मांग नहीं कर सकते हैं, विशेषतौर पर ऐसी स्थिति में जब किराए के परिसर पर उनका लगातार कब्जा हो या उसमें रह रहे हों।
हालांकि किराएदार को कुछ राहत प्रदान करते हुए न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की एकल पीठ ने कहा है कि लाॅकडाउन के कारण किराए के भुगतान की अनुसूची में कुछ स्थगन या छूट दी जा सकती है।
यह आदेश उस आवेदन के संबंध में दिया गया है,जिसमें COVID-19 लॉकडाउन संकट में किरायेदारों को किराए के भुगतान के छूट देने से संबंधित विभिन्न मुद्दों को उठाया गया था और इसी से जुड़े कानूनी सवाल भी इस आवेदन में उठाए गए थे।
इस आवेदन में हाईकोर्ट द्वारा 2017 में एक आदेश के तहत पारित दिशा-निर्देश को निलंबित करने की मांग की गई थी। उस आदेश में हाईकोर्ट ने खान मार्केट,नई दिल्ली में स्थित एक संपत्ति का प्रतिमाह 3.5 लाख रुपये किराया देने का निर्देश दिया था और इस शर्त के साथ ही किराया नियंत्रक न्यायालय द्वारा पारित बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी थी। आवेदक ने COVID-19 लॉकडाउन का हवाला देते हुए किराए को निलंबित करने या उस पर रोक लगाने की मांग की थी।
इस आवेदन की मैरिट पर आगे बढ़ने से पहले, अदालत ने निम्नलिखित प्रारंभिक अवलोकन किया और कहा कि-
''सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन किरायेदारों को छूट का दावा करने या किराए के भुगतान से छूट या किराए के निलंबन की मांग करने का हकदार बनाता है? इससे देश भर में हजारों मामलों उत्पन्न हो जाएंगे।
हालांकि, इन मामलों को संबोधित करने के लिए कोई मानक नियम निर्धारित नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन कुछ व्यापक मापदंडों को ध्यान में रखा जा सकता है। ताकि वह तरीका निर्धारित किया जा सकें जो इस तरह के मुद्दों का समाधान कर सकें।'
किरायेदार के वकील ने किराए में छूट देने या कुछ आंशिक राहत जैसे कि भुगतान को स्थगित करने की मांग की थी। उसने दलील दी थी कि लॉकडाउन ने व्यवसाय को गंभीर नुकसान पहुंचाया है।
दूसरी ओर मकान मालिक के वकील ने तर्क दिया कि केवल व्यवसाय में व्यवधान के आधार पर किरायेदारों को मासिक भुगतान करने से छूट नहीं दी जा सकती है क्योंकि मकान मालिक भी किराए के परिसर की आय पर निर्भर रहता है।
इन दलीलों को ध्यान में रखने के बाद अदालत ने भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 32 और 56 का विश्लेषण किया। उसके बाद अदालत ने कहा कि धारा 56 ,जो कि कर्तव्य को निभाने की असंभावना के कारण अनुबंध की निष्फलता के बारे में बताती है। परंतु यह धारा लीज एग्रीमेंट पर लागू नहीं होती है। इसी तरह यह धारा उन अनुबंधों पर भी लागू नहीं होती है जो ''निष्पादित अनुबंध'' है, न कि ''निष्पादन योग्य अनुबंध।''
अदालत ने कहा कि
''मूल सिद्धांत यह होगा कि यदि अनुबंध में किसी प्रकार की छूट या किराए के निलंबन के लिए कोई खंड बनाया गया हैै, तो ही किरायेदार इसके लिए दावा कर सकता है। इसी तरह अनुबंध में फोर्स मेज्योर या प्राकृतिक आपदा क्लॉज भी धारा 32 के तहत प्रासंगिकता रखता है। जो किरायेदार को यह दावा करने की अनुमति दे सकता है कि वह अनुबंध हो निरस्त कर दे और परिसर को खाली कर दें। हालांकि, यदि किरायेदार परिसर को अपने पास रखना चाहता है और कोई खंड इस मामले में किरायेदार को कोई राहत नहीं देता है तो उसे किराया या मासिक शुल्क देना ही होगा।''
इसके बाद अदालत ने फोर्स मेज्योर सिद्धांत के मामले को देखा। न्यायालय ने संपत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 108 (बी) (ई) को देखने के बाद कहा कि उक्त प्रावधान केवल संविदात्मक शर्त के अभाव या अनुपस्थिति में लागू होता है।
अदालत ने यह भी कहा कि
'उपर्युक्त कानूनी स्थिति के मद्देनजर, COVID-19 प्रकोप के कारण घोषित किए गए लॉकडाउन के चलते परिसर का अस्थायी गैर-उपयोग भी ,टीपीए की धारा 108 (बी) (ई) के तहत लीज को निरस्त करने की व्याख्या के रूप में नहीं माना जा सकता है।'
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